गोडवाड़ की आवाज–हितेश देवड़ा की रिपोर्ट
सादडी : मोहर्रम की दसवीं का ताजिया जुलूस शनिवार को हुसैन की शहादत में सुबह व शाम में पूरी शान-शौकत के साथ निकला।
या हुसैन..या हुसैन की सदाओं के बीच विभिन्न अखाड़ों ने शहर के मुख्य मार्गों पर हैरत में डालने वाले करतब दिखाए।जिसको देखने के लिए दुर दराज से लोग सादडी पहुँचे। हजरत इमाम हुसैन की शहादत की याद में नगर सहित पूरे क्षेत्र में मोहर्रम पर शनिवार को ताजियों का जुलूस चाँद कॉलोनी होते हुए आखरीया चौक पहुँचा। जहां कांग्रेस नगर अध्यक्ष राकेश मेवाडा के नेतृत्व मे स्वागत किया गया।
नेता प्रतिपक्ष राकेश मेवाड़ा ने बताया कि मोहर्रम कोमीएकता का प्रतीक है। मुहर्रम के इस दिन हमें, हजरत इमाम हुसैन की कुर्बानियों को याद करते हुए – न्याय, भाईचारे और सद्भाव के मूल्यों को कायम रखने का संकल्प लेना चाहिए।
नेता प्रतिपक्ष राकेश रेखराज मेवाडा लाइसेंस धारी याकुब खां क़ुरैशी व फ्याज खां का माला साफ़ा पहनाकर स्वागत किया। फिर आम मुस्लिम समाज ने नगर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष राकेश रेखराज मेवाडा व साथी पार्षद वसीम नागौरी रमेश प्रजापत मनोनीत शंकर देवडा का माला व साफा पहनाकर स्वागत किया।मुहमदिया हुसैन,या हुसैन या हुसैन के नारे के साथ लोगों ने ताजिया को उठाया और जुलूस की शक्ल में कर्बला पहुंच कर ताजियों को ठंडा किया। मुहर्रम गम और मातम का महीना है, जिसे इस्लाम धर्म को मानने वाले लोग मनाते हैं। इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक, मुहर्रम इस्लाम धर्म का पहला महीना होता है। यानी मुहर्रम इस्लाम के नए साल या हिजरी सन् का शुरुआती महीना है।मुहर्रम बकरीद के पर्व के 20 दिनों के बाद मनाया जाता है। इस बार 29 जुलाई को आशूरा या मुहर्रम मनाया जा रहा है। इस्लाम धर्म के लोगों के लिए यह महीना बहुत अहम होता है, क्योंकि इसी महीने में हजरत इमाम हुसैन की शहादत हुई थी। हजरत इमाम हुसैन इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मुहम्मद साहब के छोटे नवासे थे। उनकी शहादत की याद में मुहर्रम के महीने के दसवें दिन को लोग मातम के तौर पर मनाते हैं, जिसे आशूरा भी कहा जाता है। चलिए जानते हैं मुस्लिम धर्म के दूसरे सबसे पवित्र माह मुहर्रम के इतिहास, महत्व, हजरत इमाम हुसैन और ताजियादारी के बारे में सबकुछ।
क्यो मनाते है मोहर्रम
इस्लाम धर्म की मान्यता के मुताबिक, हजरत इमाम हुसैन अपने 72 साथियों के साथ मोहर्रम माह के 10वें दिन कर्बला के मैदान में शहीद हो गए थे। उनकी शहादत और कुर्बानी के तौर पर इस दिन को याद किया जाता है। कहा जाता है कि इराक में यजीद नाम का जालिम बादशाह था, जो इंसानियत का दुश्मन था। यजीद को अल्लाह पर विश्वास नहीं था। यजीद चाहता था कि हजरत इमाम हुसैन भी उनके खेमे में शामिल हो जाएं। हालांकि इमाम साहब को यह मंजूर न था। उन्होंने बादशाह यजीद के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया। इस जंग में वह अपने बेटे,घरवाले और अन्य साथियों के साथ शहीद हो गए थे।
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