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संत शिरोमणि रविदास | Saint Shiromani Ravidas

संत शिरोमणि रविदास का जन्म माघ पूर्णिमा विक्रम संवत 1433 (1376ई.) को वाराणसी स्थित सीर गोवर्धनपुर में चर्मकार परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम रग्घू तथा माता का नाम कर्मा था। इनकी पत्नी का नाम लोना व पुत्र का नाम विजय दास था।

विजय सिंह माली - प्रधानाचार्य

श्रीधनराज बदामिया राजकीय बालिका उच्च माध्यमिक विद्यालय सादड़ी जिला पाली राजस्थान मोबाइल – 9829285914 vsmali1976@gmail.com

पंच गंगा घाट के प्रसिद्ध संत स्वामी रामानंद का शिष्य बनने की इच्छा इनके मन में जागी तो स्वामी रामानंद ने इसे ‘प्रभु के यहां कोई छोटा बड़ा नहीं होता ‘कह कर तुरंत स्वीकार कर लिया। स्वामी रामानंद ने रैदास को प्रभु राम की भक्ति करने तथा भजन लिखने का आग्रह किया। भक्ति भाव से पद लिखना, भक्तों के मध्य गाना और जूते बनाने का अपना व्यवसाय भी करते रहना उनकी दिनचर्या हो गई और शीघ्र ही वे निर्गुण भक्ति परंपरा के एक प्रमुख कवि संत बन गए। इनकी 40बानियां गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित हैं। संत शिरोमणि रविदास का मानना था कि सभी का प्रभु एक है तो जातिभेद जन्म से क्यों आ गया? यह मिथ्या है।

संत शिरोमणि रविदास ने कहा -
"जाति एक जामें एकहि चिन्हा,देह अवयव कोई नहीं भिन्ना।
कर्म प्रधान ऋषि मुनि गावें, यथा कर्म फल तैसहि पावें।
जीव कै जाति बरन कुल नहीं,जाति भेद है जग मूरखाई।
नीति स्मृति शास्त्र सब गावें,जाति भेद शठ मूढ़ बतावें।"

संत रविदास कहते हैं कि संतों के मन में तो सभी के हित की बात ही रहती है।वे सभी के अंदर एक ही ईश्वर के दर्शन करते हैं तथा जाति पांति का विचार भी नहीं करते-

"संतन के मन होत है,सब के हित की बात।
घट घट देखें अलख को,पूछें जात न पात।।"

संत रविदास ने लोगों को समझाया कि जन्म से कोई व्यक्ति ऊंचा या नीचा नहीं होता। छोटे कर्म ही व्यक्ति को नीच बनाते हैं – “रविदास जन्म के कारनै,होत न कोऊ नीच। नर को नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच।”

संत रविदास कहते हैं कि भगवद्भक्ति सभी का उद्धार करने में सक्षम है चाहे वह किसी भी जाति का क्यों न हो।
“ब्राह्मन वैस सूद अरु खत्री डोम म्लेक्ष मन सोई।
होइ पुनीत भगवत भजन ते आपु तारि तारे कुल बोई।।”

संत शिरोमणि रविदास ने छोटी अथवा अधम कहीं जाने वाली जातियों के अंदर पैदा होने वाली क्रांतिकारी चेतना को पहचाना तथा उनके पथ-प्रदर्शक बनकर उनमें आत्मसम्मान के लिए भगवद्भक्ति को आधार बनाकर संघर्ष किया।
पूजा के कर्मकांडों में उनका विश्वास नहीं था। उन्होंने पूजा के नाम पर हो रहे ढोंग का विरोध किया। वे कहते हैं –

'किससे पूजा करु,नदी का जल मछलियों ने गंदा कर दिया,
फूल को भौंरे ने जूठा कर दिया,
गाय के दूध को बछड़े ने जूठा कर दिया है, 
अतः मैं ह्रदय से पूजा कर रहा हूं।'

तत्कालीन शासक सिकंदर लोदी ने इन्हें अपनी धर्मांतरण की मुहिम का हिस्सा बनाने के उद्देश्य से सदना पीर को इनके पास भेजा। किंतु इनकी ईश्वर भक्ति व आध्यात्मिकता से प्रभावित होकर सदना भी रामदास नाम से इनका शिष्य बन गया। इन्होंने वैदिक धर्म को पूर्ण धर्म बताते हुए इसे किसी भी परिस्थिति में नहीं त्यागने का संकल्प दोहरायाऔर हिंदू धर्म में अपनी श्रद्धा,निष्ठा और आस्था व्यक्त की।

‘वेद धर्म त्यागूं नहीं,जो गल चलै कटार।
वेद धरम है पूरण धरमा,करि कल्याण मिटावे भरमा।
सत्य सनातन वेद है, ज्ञान धर्म मर्याद।
जो ना जाने वेद को, वृथा करें बकवाद।’

सिकंदर लोदी ने जब इन्हें कठोर दंड देने की धमकी दी तो उन्होंने निर्भीकता से जवाब दिया –

“मैं नहिं दब्बू बाल गंवारा,गंग त्याग गहूं ताल किनारा।
प्राण तजूं पर धर्म नहीं देऊं, तुमसे शाह सत्य कह देऊं।”

संत रविदास ने उस कठिन काल में सच्ची भक्ति की निर्मल गंगा प्रवाहित कर दी। वे अपने घट घट वासी निराकार ब्रह्म को अलग-अलग नामों से संबोधित करते हैं।

राम बिनु जो कछु करिए सब भ्रम रे भाई।
ऐसा ध्यान करूं बनवारी।
माधों संगति सरनि तुम्हारा जगजीवन कृष्ण मुरारी।
कान्हा हो जगजीवन मोरा।
दीनानाथ दयाल नरहरि।।”

संत रविदास ने कहा कि राम के बिना इस जंजाल से मुक्ति कठिन है।

“राम बिन संसै गांठि न छूटे।
काम क्रोध मद मोह माया,इन पंचनि मिलि लूटै।”

निर्मल संत स्वभाव के रविदास को जब इनके परिजनों ने घर से बाहर निकाल दिया तो वे एक कुटिया बनाकर सपत्नीक रहने लगे। इन्होंने मन चंगा तो कठौती में गंगा का साक्षात कराया।घोर अभावों में जीने के बावजूद अपने पास रखें पारस पत्थर का उपयोग तक नहीं कर निर्लिप्तता का आदर्श रखा। संत शिरोमणि रविदास का भक्ति भाव देखकर काशी नरेश,मेवाड़ की झाली रानी तथा मीराबाई इनकी शिष्या हो गई। संत रविदास और मीरां का मिलन भक्ति की निर्गुण व सगुण धारा के मिलन के साथ सामाजिक समरसता का अद्वितीय उदाहरण है।


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हाथ से काम करने को पवित्र व सम्मानीय बताया।संत रविदास ने कहा कि ईश्वर ने सभी मनुष्यों को बनाया और उनमें से प्रत्येक के भीतर ईश्वर रहता है। यदि एक ही ईश्वर पूरी मानवता में व्याप्त है तो समाज को जाति के आधार पर विभाजित करना मूर्खता है। बेगमपुरा कोएक आदर्श शहर के रुप में चित्रित किया जहां बिना भेदभाव,जाति भेद के लोग रहते हैं। जहां समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व है, जहां मानव की गरिमा है, मानवाधिकार प्राप्त है, जहां सामाजिक न्याय है।

संत रविदास ने सिखाया कि ईश्वर की भक्ति और प्रेम सबसे महत्वपूर्ण है। उन्होंने सभी मनुष्यों को समान मानने की बात कही। उन्होंने सत्संग,दान, अनुशासन, शिक्षा, आत्मनिरीक्षण तथा समरसता पर बल दिया। इनके अनुसार –
जो सत्य का पालन करता है, उसे कभी डर नहीं लगता।
सत्य के मार्ग पर चलना सबसे बड़ी उपलब्धि है।
दूसरों की बुराई करना छोड़ स्वयं में सुधार करें।
सभी धर्म एक ही सत्य की ओर ले जाते हैं।
संपूर्ण मानव जाति में कोई भी ऊंचा या नीचा नहीं होता। संत शिरोमणि रविदास को संपूर्ण देश में मान सम्मान मिला।संत कबीर ने भी संतन में रविदास संत हैं कहकर इनके प्रति श्रद्धा व्यक्त की।
संत रविदास का निर्वाण विक्रम संवत् 1584 यानी 1527ईस्वी में चितौड़गढ़ में हुआ। चित्तौड़गढ़ में इनकी छतरी बनी हुई है। इनके अनुयायियों ने रविदास संप्रदाय चलाया जिसे करोड़ों लोग मानते हैं। सामाजिक समरसता के संवाहक संत शिरोमणि रविदास का जीवन हमारे लिए प्रेरणास्रोत हैं। इनकी शिक्षाएं आज भी प्रासंगिक हैं।


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