भारत रत्न और जननायक कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी 1924 को अति पिछड़े वर्ग के नाई परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम गोकुल ठाकुर तथा माता का नाम रामदुलारी देवी था। पिता सीमांत किसान थे और पारंपरिक पेशा बाल काटने का काम करते थे।
इनकी प्रारंभिक शिक्षा तिरहुत एकेडमी व न्यू हाई स्कूल समस्तीपुर में हुई। इन्हें प्रतिदिन 6 किलोमीटर नंगे पांव पैदल चलकर विद्यालय जाना पड़ता था। द्वितीय श्रेणी में मेट्रिक करने के बाद दरभंगा से आईए किया तत्पश्चात स्नातक में प्रवेश लिया। महात्मा गांधी से प्रभावित ठाकुर ने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कालेज छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया व जेल गए। 26 महीने जेल में बिताए। उनका भाषण “हम मिलकर भी थूकें तो अंग्रेज बह जाएंगे।” भाषण चर्चित रहा, इसके लिए इन्हें दंडित भी किया गया। इनकी लिखी कविता “हम सोए वतन को जगाने चले हैं, हर मुर्दा दिलों को जिलाने चले हैं” आगे चलकर समाजवादियों का प्रभातफेरी गीत बन गया।
देश की आजादी के बाद शिक्षक के रुप में कार्य करने लगे। 1952 में सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर ताजपुर से चुनाव लड़कर जीत हासिल की। कर्मचारियों व मजदूरों के हितों की रक्षार्थ हुए आंदोलन में भी भाग लिया। कभी चुनाव नहीं हारे कर्पूरी ठाकुर अपनी सादगी, सत्यनिष्ठा, ईमानदारी व परिश्रम के बल पर 5 मार्च 1967 को महामाया प्रसाद के मंत्रिमंडल में उपमुख्यमंत्री व शिक्षा मंत्री बने। इस दौरान इन्होने दसवीं में अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म की। 22 दिसंबर 1970 को बिहार के मुख्यमंत्री बने। इस दौरान उन्होंने आठवीं तक की शिक्षा मुफ्त की, 5 एकड तक की जमीन पर मालगुजारी खत्म कर दी। इनकी पत्नी का नाम फुलेश्वरी देवी था। आपातकाल के दौरान संपूर्ण क्रांति आंदोलन का नेतृत्व किया। 24 जून 1977 को पुनः बिहार के मुख्यमंत्री बने। दो बार मुख्यमंत्री बनने के बाद इनकी वसीहत में एक झोपड़ी के अलावा कुछ नहीं मिला था.
मुख्यमंत्री बनने के बाद इन्होंने बिहार में शराबबंदी की तथा मुंगेरीलाल आयोग की रिपोर्ट को लागू करते हुए पिछड़े वर्ग को भी आरक्षण दिया। सामाजिक न्याय के लिए इनकी प्रतिबद्धता के कारण इनकी सरकार गिर गई। 1979 में ये चौधरी चरणसिंह के साथ हो गए। 1980 में समस्तीपुर विधानसभा से व 1985 में सोनबरसा से लोकसभा सीट से चुने गए। डाक्टर राममनोहर लोहिया व समाजवादी विचारधारा से प्रभावित कर्पूरी ठाकुर का जीवन सादगी और सामाजिक न्याय को समर्पित रहा। सामाजिक न्याय उनके मन में रचा बसा था।
वे स्थानीय भाषा में शिक्षा के पैरोकार थे। डेमोक्रेसी, डिबेट और डिस्कशन उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा था। उन्होंने देश पर जबरन थोपे गए आपातकाल का भी विरोध किया। कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में ऐसी नीतियों को लागू किया गया जिनसे एक ऐसे समावेशी समाज की मजबूत नींव पड़ी, जहां किसी के जन्म से उसके भाग्य का निर्धारण नहीं होता है। उनका कहना था –“यदि जनता के अधिकार कुचले जाएंगे तो आज नहीं तो कल जनता संसद के विशेषाधिकारों को भी चुनौती देगी।”
17 फरवरी 1988 को मात्र 64 वर्ष की उम्र में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। 1991 में इन पर डाक टिकट जारी किया गया। 23 जनवरी 2024 को इन्हें मरणोपरांत भारत रत्न देने की घोषणा केन्द्र सरकार ने की है। आज कर्पूरी ठाकुर हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके विचार व कार्य सदैव हमें प्रेरित करते रहेंगे।
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