
मृत्यु का रहस्य और अमरत्व की खोज
वाट्स एप पर मेरे गांव केरला का एक ग्रुप है “युवा पीढ़ी संघर्ष केरला एकता ग्रुप” जिसमें आज एक दुखद सुचना आई की मेरे बचपन के दोस्त दलपत सिरवी गुलाबपुरा अब इस दुनिया में नहीं रहे। यह समाचार मेरे लिए झकझोरने वाला था क्योंकि दलपत सिरवी की उम्र मेरे से भी कम थी। सुचना भेजने वाले से मैंने पूछा की अचानक यह कैसे हुआ ? तो उसने बताया ही हार्ड अटेक आ गया था। यह सुनकर मुझे आभास हुआ की मनुष्य की जिंदगी पानी के बुलबुले समान है। ज़िन्दगी का कोई भरोसा नहीं कब बुलावा आ जावे। मैं इसी चिन्तन मनन में आत्म निरिक्षण करने लगा।
इससे पूर्व कल दिव्यांग सेवा समिति पाली की वरिष्ठ सदस्या मूक-बधिर प्रियंका मुंदड़ा की सासू मां के अन्तिम संस्कार (लोकाचार) में गया था तब भी पुरे रास्ते जाते समय और आते समय ईश्वर स्तुति प्रार्थना उपासना के निचे लिखे मंत्र का मौन रहकर जाप करता रहा-
ओ३म् य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः ।
यस्य छायाऽमृतम् यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥
(यजुर्वेद 25.13)
योगी और गृहस्थ लोग मृत्यु पर विजय दिलाने वाले ‘अमृत’ प्राप्ति के अनमोल साधन प्राणायाम, ब्रह्मचर्य और तप एवं वेदाभ्यास, सदाचार, आदि का सहारा लेते है। फिर भी मृत्यु को आना ही है सो एक दिन वह अवश्य आयेगी। प्रश्न उठता है कि मृत्यु पर पूर्ण विजय प्राप्त करने के लिए अचूक उपाय क्या हैं ? इसका जवाब यह है कि आस्तिकता अर्थात
उस दिव्य सत्ता ईश्वर को जानकर उस पर परम विश्वास, दृढ़ आस्था और अनुराग ही वह अचूक उपाय है जो हमें मृत्यु भय से मुक्त कर सकता है।
ऋषिवर दयानन्द जी महाराज के मृत्यु समय का विवरण पढ़कर आत्म मंथन करें तो ज्ञात होता है की ऋषिवर दयानन्द का ईश्वर के प्रति विशेष अनुराग था। इसलिए अन्तिम अवस्था में भी ऋषिवर के चेहरे पर मृत्यु का कोई भय चिन्ता और कष्ट दृष्टिगोचर नहीं हुआ वे हंसते-हंसते ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो कहकर उसकी गोद में लेट गये।
मृत्यु के कष्टों से दुःखी जीव की पुकार सदा मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की रही है। भक्त कहता है–
मृत्योर्माऽमृतं गमय ।
प्रभो मुझे मृत्यु बन्धन से हटा कर अमरत्व प्रदान करो । प्रभो! यह मृत्यु मुझे बहुत परेशान कर रही है। मैं उससे ड़र गया हूं, यह मुझे बहुत पीड़ित कर रही है। एक तुम्हीं हो जो इससे सदा सर्वदा के लिए मुक्ति दिला सकते हो। मैं जानता हूं कि मेरे आराध्य केवल एक तुम हो, कोई दूसरा नहीं है। जो आपके अनन्य भाव को प्राप्त नहीं होता वह-
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति यो नानेव पश्यति ।
वह मृत्यु ग्रस्त ही है जिसमें तुम्हारे प्रति अनन्य भाव नहीं है।
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाऽति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।।-(यजुर्वेद ३१/१८)
अर्थ:-अन्धकार से विहीन, आदित्य रुप उस महान प्रभु को मैंने जान लिया है, उसके दर्शनों से कृतार्थ हो गया हूं मैं। उसे जानकर मृत्यु को मैंने लांघ लिया है। हे अमृत स्वरुप ! तुमसे मुझे अमरता प्राप्त हुई है। मृत्यु से बचने का ‘अमृत’ प्राप्ति का इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है। समाधि योग से चित्त के अविद्या आदि मल नष्ट होने पर आत्मस्थ होने से परमात्मा के योग का जो आनन्द उपलब्ध हुआ है वह वाणी द्वारा वर्णन नह़ी किया जा सकता। वह तो अन्तःकरण द्वारा अनुभव किया जा सकता है।
यजुर्वेद में कहा है:-
यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ।
ऋषि दयानन्द इसका अभिप्राय स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
“जिस (ब्रह्म) का आश्रय ही अमृत अर्थात् मोक्ष-सुखदायक है और जिसका न मानना अर्थात् भक्ति न करना ही मृत्यु आदि दुःख का हेतु है, हम लोग उस सुख स्वरुप, सकल ज्ञान के देने हारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति अर्थात् उसकी आज्ञापालन करने में तत्पर रहें।”
अथर्ववेद कहता है-
ब्रह्मापरं युज्यतां ब्रह्म पूर्वं ब्रह्मान्ततो मध्यतो ब्रह्म सर्वतः।
ब्रह्म ऊपर है, नीचे है, आगे है, पीछे है, मध्य में है, सब और है- जहां ऐसी अनुभूति होने लगती है उन घरों में गौ, घोड़ा, पशु और मनुष्य किसी को भी मृत्यु अपने वश में नहीं करती।
कितना बड़ा आश्वासन है यह ! कितने विश्वास से ये बात कही गयी है उनके लिए जो वेदवचन पर अमित श्रद्धा रखकर मृत्यु के इस दुःख को उस ब्रह्म-सरोवर में डुबकी लगाकर दूर कर सकें।
योग वासिष्ठ में कहा है-
एकस्मिन्निर्मले येन पदे परमपायने।
संश्रिता चितविश्रान्तिस्तं मृत्युर्न जिघांसति ।।-
(योगवासिष्ठ ६/१/२३/११)
अर्थ:-जिसका मन निर्मल ,परम पावन एक ब्रह्म में स्थिर होकर शान्त हो गया है उसे मृत्यु कभी नहीं मार सकती।
उस परमपिता परमात्मा की गोद ही ऐसी है जहां बैठकर मृत्यु क्या, अन्य सभी प्रकार के भय भी शान्त हो जाते हैं।
तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्।
तेषां शान्तिः शाश्वतं नेतरेषाम्।।
उन्हें शाश्वत सुख मिलता है, परम शान्ति होती है जो उसकी गोद में बैठते हैं, अन्य को नहीं।
श्वेताश्वतर उपनिषद में कहा है-
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवाभियन्ति।-(श्वेताश्व० ३/१०)
जो उस ब्रह्म को जान लेते हैं वे अमृत हो जाते हैं किन्तु जो ऐसा नहीं करते वें बार बार जन्म-मरण के दुःख को प्राप्त करते हैं।
बृहदारण्यक उपनिषद् में ऋषि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि-
अग्निर्वै मृत्युः सोऽपामन्नमप पुनर्मृत्युं जयति।-
(बृहदा० ३/२/१०)
हे मूनियो ! मृत्यु अग्निरुप है (सर्वभक्षक है), किन्तु उस अग्निरुप मृत्यु की भी मृत्यु शीतल जलों से हो जाती है। जो इस रहस्य को जान लेता है वह मृत्यु को भी जीत लेता है।
मृत्यु के वास्तविक स्वरुप की यदि हम तुलना करना चाहें तो कह सकते हैं कि मृत्यु अग्निरुप है। दोनों के स्वरुप और विशेषताओं में बहुत समानता है।मृत्यु भी अग्नि की भांति सर्वभक्षक, दाहक, भस्मक, ज्वालक और विनाशक है, किन्तु इस अग्नि की भी मृत्यु का उपाय लोकसिद्ध है। वह है- शीतल जल।
ठीक इसी प्रकार मृत्यु रुपी अग्नि को यदि हम शान्त करना चाहते हैं- यदि हम मृत्यु की मृत्यु के अभिलाषी हैं तो शान्त, शीतल, आह्लादक ब्रह्मानन्द- जल में डुबकी लगानी पड़ेगी। तब यह मृत्यु या मृत्यु- जन्य दुःख की आग वैसे ही शान्त हो जाती है जैसे जलों से आग शान्त हो जाती है। इसलिए संसार में ईश्वर के सच्चे भक्तों को मौत नहीं जीत सकी है, अपितु मौत को उन्होंने जीत लिया है। यजुर्वेद में कहा है-
यस्य छाया अमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।-
(यजुर्वेद २५/१३)
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