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ब्रह्मर्षि अंगिरा जी के हृदय में प्रगटाभूत अथर्ववेद से मनुष्य को मिला भाषा का ज्ञान

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Ghevarchand Aarya
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Ghevarchand Aarya is a Author in Luniya Times News Media Website.

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ब्रह्मर्षि अंगिरा की उत्पत्ति

ब्रह्मर्षि अंगिरा सृष्टि उत्पत्ति के समय वैदिक काल में हुए हैं। अब आंख मूंदकर ध्यान कीजिए कि आदि सृष्टि कैसी हो सकती है ? सम्पूर्ण पृथ्वी पर आजकल के समान ही विविध नदी-स्रोत स्वच्छंद तया प्रवाहित थे। समुद्रदेव अपने तरंग-कल्लाल से प्रकृतिदेवी की शोभा बढ़ा रहे थे। फूल, फल, कंद, मूल अनेक प्रकार के गेहूं , जौ, मसूर, (धान) प्रभृति ओषधियों से भूमि भरी हुई थी। पशु, पक्षी और मत्स्यादि जलचर आदि का ही सम्पूर्ण राज्य था, अर्थात् जब मनुष्यों के जीवन यापन की समस्त सामग्री भूमि पर हो गई तब कृपालु (ब्रह्मा) ने सर्व प्रथम मनुष्य सृष्टि का आरम्भ किया ।

जैसे एक गृह में एक ही माता-पिता के निज-निज कर्म-संयुक्त भिन्न आकृति अनेक सन्तान हों, वैसे ही आदि सृष्टि में उस परमपिता (ब्रह्मा ) ने तिब्बत के मानसरोवर श्रैत्र में अनेक मनुष्य निज कर्मानुसार आकृतिगत यत्किञ्चित् भेद के साथ इस पृथ्वी पर उत्पन्न किये। उनमें से सबसे पवित्र और श्रेष्ठ चार ऋषियो अग्रि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा के हृदय में चारों वेद प्रकट किये गये और इनके द्वारा मनुष्य- ही समाज में भाषा का प्रचार हुआ। जिसको अमैथुनी सृष्टि कहां जाता है।

ऋषियों ने वेद में आये शब्दो के अनुसार जीव जंतुओं वनस्पतियों नदी पर्वतों और प्रजाओं के गुण कर्म स्वभाव अनुसार नामकरण किया। सृष्टि केे आदि में उत्पन्न होने के कारण ही ब्रह्मर्षि अंगिरा को ब्रह्मा का मानस पुत्र कहां जाता है। ये ही शिल्पी ब्राह्मणों के अग्रज पितृ पुरूष और अथर्ववेद के आदि प्रणेता है। कालान्तर में इसी अंगिरा कुल में उत्पन्न ब्रह्मर्षि वंश परम्परा में अंङ्गिरस कहलाये। ये सब वैदिक कालीन मंत्र -द्रष्टा ऋषि हुए हैं।

अंगिरावंश में विश्वकर्मा का अवतरण

आदि सृष्टि उत्पत्ति काल के बाद स्वायम्भुव मन्वन्तर में इसी आदि ब्रह्मर्षि अंगिरा वंश और परम्परा में एक और अंगिरा हुए उनके पुत्र बृहस्पति तथा एक कन्या ब्रह्मवादिनी भुवना हुई। यही भुवना अष्टम वसु प्रभास ऋषि की धर्मपत्नी थी। जिसके गर्भ से शिल्प विधाओं के अविष्कारक और जनक वैदिक कालीन ऋषि विश्वकर्मा का जन्म हुआ।

ये वैदिक कालीन प्रथम विश्वकर्मा ही ऋग्वेद मंत्र 10 सूक्त 81 व 82 के 14 मंत्रों तथा यजुर्वेद अध्याय 17 के सत्रहवें मंत्र से बत्तीसवें मंत्र तक के 16 मंत्रों के और अथर्ववेद के एक मंत्र क्रमांक 1589 मंत्र के मंत्र-द्रष्टा ऋषि हैं। उन्हीं ऋषि विश्वकर्मा की सन्तान कालान्तर में शिल्पी ब्राह्मण पांचाल, धीमान, जांगिड़, सुथार, खाती , रामगढ़िया आदि के नाम से विख्यात हुई।

ब्रह्मर्षि अंगिरा वंश में शिल्पाचार्य परम्परा

पुराणों और शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मर्षि अंगिरा वंश में ऋषि परम्परा के अनुसार अनेक आचार्य हुए जिसमें एक बृहस्पति भी है। बृहस्पति के पौत्र शंयु तथा शंयु के पुत्र भारद्वाज ऋषि हुए । इन्होंने भी वेद मंत्रों का साक्षात्कार कर अग्निके विभिन्न गुणों और शक्तियों को जानकर अनेक शिल्प शास्त्रों, यंत्र सर्वस्व, आकाश शास्त्र, तथा भारद्वाज शिल्प की रचना की। उसमें “यन्त्र सर्वस्व” में विमान रचना सम्बन्धी समस्त रहस्यों का वर्णन है। इसी प्रकार ब्रह्मर्षि अंगिरा के वंश में उत्पन्न हुए ऋभुगण जो कि शिल्पिय गुरुकुल के आचार्य विश्वकर्मा के शिष्य हुए हैं। अतः शिल्प विद्याओं के गुरुकुल का आचार्य विश्वकर्मा अपने शिष्य वर्गों में से इस प्रकार के मेधावी बुद्धि वाले सोम अर्थात् ऋभु नामक स्नातक ब्राह्मण को जाङ्गिड नाम की उपाधि देता था। जिसकी वेदों मे सर्वत्र अच्छी प्रशंसा की है।

वेदो के स्वाध्याय से पूर्वजों का जागरूक हुआ स्वाभिमान

शिल्पियों के पूर्वज पं डॉ. इन्द्रमणी जी शर्मा लखनऊ ने स्वामी दयानन्द के उपदेशों से प्रभावित होकर अथर्ववेद और वैदिक साहित्य का स्वाध्याय किया, उन्होंने वेद शास्त्रों और शिल्प विद्या का महत्व पं. पालाराम जी शर्मा, और बाबू गोरधन दास जी शर्मा, को बताया उनके साथ पं. डालचंद जी शर्मा, पं. गुरुदेव जयकृष्ण जी मणीठिया भी जुड़ गए। हमारे इन पुर्वजों द्वारा वेदों का विशेष कर अथर्ववेद का स्वाध्याय करते हुए काण्ड 19 सूक्त 34 एवं 35 में पढ़ा की शरीर में सुरक्षित वीर्य धारण करने से अंग-प्रत्यंग में रसवाला *अङ्गिराः* बनता है। मंत्रार्थ मनुष्य शरीर में विद्यमान सबसे किमती धातु वीर्य को *जङ्गिड* नाम से स्मरण करता है। यह कहता है कि-

जङ्गिडोऽसि जङ्गिडो रक्षितासि जङ्गिङः । (अथर्ववेद)

अंग-प्रत्यंग में रसवाला अङ्गिराः तू जङ्गिडः नामक वीर्यमणी को धारण करने वाला उत्पन्न हुए- हुए रोगों को निगल जाने वाला असि है।

अर्थात वीर्य रूपमणी धारण करने वाले अंग प्रत्यंग से रसवाले (ब्रह्मचारी) अंगिरा को ‘जङ्गिड’ नाम से सम्बोधित किया हुआ देखा । इसी प्रकार उन्होंने शान्तिकल्प (19.34.35) में इसका उल्लेख जङ्गिड मणी (औषधि) के रूप में देखा । वायव्य महाशान्ति में जङ्गिड वृक्ष से निर्मित जङ्गिडमणि बांधे । इस जङ्गिड का दूसरा नाम अङ्गिराः भी है, इस प्रकार वेद शास्त्रों से ब्रह्मर्षि अंगिरा और जांगिड़ शब्दों का यथार्थ परिचय जानकर उनमें जाति स्वाभिमान का आत्मबोध जागरूक हुआ परिणाम स्वरूप उन्हें ज्ञात हुआ कि हम सृष्टि के आदि में उत्पन्न होने वाले विश्व के सर्वश्रेष्ठ पवित्र ऋषि अंगिरा की संतान हैं।

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अ. भा. जां. ब्रा. महासभा की स्थापना का बीजारोपण

वेद शास्त्रों के स्वाध्याय से पूर्वजों के हृदय में जब यह भाव जागृत हुआ की अंगिरा का ही दुसरा नाम जांगिड़ है। तो उन्होंने सर्व साधारण को जागरूक करने के लिए “अङ्गिरोऽसि जाङ्गिन्ड” लिखकर अङ्गिरा ही जाङ्गिड है। इस मंत्र को आगे रखकर समाज में स्वाभिमान एवं आत्म-बोद्य जागरूक करने के उद्देश्य से उन्होंने अखिल भारतीय भारतीय स्तर का एक संगठन अखिल भारतीय जांगिड़ ब्राह्मण महासभा के रूप में स्थापित किया। जो अंगिरा जी की कृपा से वर्तमान में विशाल वटवृक्ष का रूप धारण कर चुका है।

ब्रह्मऋषि अंगिरा और पौराणिक अंगिरा में भेद

वैदिक कालीन ब्रह्मर्षि अंगिरा वंश में सतयुग, त्रैतायुग, द्वापरयुग इन तीन युगों और कलियुग के महाभारत काल तक वैदिक ऋषि परम्परा रही है। वैदिक शास्त्रों के अनुसार आदि सृष्टि उत्पत्ति काल से महाभारत काल तक 33 अंगिरा, 19 भृगु , 6 कश्यप, 6 आत्रेय, 7 वशिष्ठ, 13 कौशिक, 3 अगस्त तथा अनेक अंगिरा, ब्रह्मा और विश्वकर्मा होने का उल्लेख मिलता है । कालांतर में समान गुण युक्त व्यक्तियों को ऋषियों के उसी नाम से विभूषित किया गया है। स्पष्ट है कि वैदिक काल के ऋषि अंगिरा तथा ऋषि विश्वकर्मा महाभारत काल तक जीवित नहीं रह सकते। ग्रन्थों से ऐसा प्रतीत होता है कि सृष्टि के आदि वैदिक काल से महाभारत काल तक लगभग दो लाख से ऊपर विश्वकर्मा हुए हैं। किन्तु वर्तमान में पांचाल, धीमान, जांगिड़, सुथार, खाती , रामगढ़िया आदि ब्राह्मणों का सम्बन्ध अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न होने वाले प्रथम ब्रह्मर्षि अंगिरा से ही है।

वैदिक काल और परम्परा

ब्रह्मर्षि अंगिरा के समय वैदिक काल में अध्यात्म, ज्ञान, विज्ञान, कला-कौशल और सब प्रकार के उतमोत्तम शिल्प विद्या प्राप्त करने वाले आचार्य का नाम विश्वकर्मा होता था। इस प्रकार विश्वकर्मा शिल्पिय गुरुकुल का मुख्य आचार्य कहलाता था। गुरुकुल में वेदविद्या विशेषतः शिल्प-शास्त्र का अध्ययन किया जाता था, जिसमें लोहा, लकड़ी, तांबा, पत्थर और सोने का काम, ऐसे पांच प्रकार के शिल्प होते थे। इस शिल्पीय गुरुकुल का आचार्य विश्वकर्मा अपने शिष्यों को उनकी योग्यता अनुसार पांच प्रकार की उपाधियां दिया करता था। जैसे-

अयषां मनुकर्ता काष्ठकारो मयस्मृतः । त्वाष्ट्रक कांस्य कर्ताच शिलाकर्ता च शिल्पिकः ।।

देवज्ञः स्वर्णकारश्च पञ्चानां कर्म पञ्चकम् ।

यो वेद पञ्कर्माणि सर्व पापैः समुच्यते । ।

(शिवागमे अ०७)

अर्थात गुरूकुल से जो स्नातक विशेषतः लोहे के काम में कुशल होकर निकलते थे उन्हें मनु की उपाधि मिलती थी। जो काष्ठ के काम में कुशल होकर निकलते थे उनको मय की, जो कांसा तांबा आदि के काम में कुशल होकर निकलते थे उनको त्वष्टा की, जो पत्थर के काम में कुशल होकर निकलते थे उनको शिल्पी (तक्षा) तथा विशेषतः स्वर्ण के काम में निपुण होकर गुरुकुल से निकलते थे उन स्नातकों को देवज्ञ की उपाधि दी जाती थी।

ब्रह्म-ऋषि अंगिरा वंशज ओबीसी कैसे?

मैंने जो कुछ इस में लिखा है वह वेद आदि सत्य शास्त्रों के आधार पर सप्रमाण लिखा है। इसमें मन-घंड़न्त अर्थात् कल्पना नहीं की गई है। आज समाज में जो परस्पर द्वेष भावना देखने को मिलती हैं, इसका मूल कारण शास्त्रों के ज्ञान का अभाव ही है। सब अंगिरा जी और विश्वकर्मा जी को तो मानते हैं लेकिन उनकी बात को नहीं मानते। सब यह तो मानते हैं की अंगिरा वंश में ही विश्वकर्मा हुए हैं।

विश्वकर्मा के उन पांचों पुत्रों की हम संतान हैं तो कर्म के आधार पर पांचों से भेदभाव क्यों करें ? इस हिसाब से तो धीमान, पांचाल, लोहार, जांगिड़, खाती, सुथार, सोनार आदि सब शिल्पी ब्राह्मण ही है , लेकिन ज्ञान के अभाव में आज लकड़ी का काम करने वाला अपने को सुथार कहता है, कोई खाती कहता है, तो कोई जांगिड कहता है और मानता है कि वह ओबीसी अर्थात पिछड़ा है। इसलिए अपने को जांगिड ब्राह्मण नहीं कहता। ये सब ब्रह्मर्षि अंगिरा वंशज ऋषि विश्वकर्मा को अपना आराध्य मानते हैं जब ऋषि विश्वकर्मा ब्राह्मण है तो उसके शिष्य ओबीसी अर्थात पिछड़े कैसे हो गये ?

अंगिरा जयन्ति पर एक निवेदन

अतः मैं अंगिरा जयन्ति पर अंगिरा वंशज शिल्पी ब्राह्मणों (जांगिड़, सुथार, खाती, धीमान, पांचाल आदि से निवेदन करता हूं कि वह जीवन यापन और परिवार के भरण पोषण के लिए नोकरी, उद्योग, व्यापार या शिल्प सम्बन्धी कोई भी कार्य करें। तथा आलस्य और प्रमाद छोड़कर ऋषि अंगिरा के हृदय में प्रगटाभूत अथर्ववेद और ऋषि विश्वकर्मा लिखित अथर्ववेद का उपवेद अर्थवेद अर्थात् शिल्प शास्त्र का समय निकालकर कर स्वाध्याय करें और यज्ञादि कर्म नित्यप्रति श्रेष्ठतम विधि के अनुकूल करते और कराते रहें, जिससे ओबीसी अर्थात पिछड़ेपन का भूत भाग जावे और आत्मा में श्रेष्ठत्व अर्थात ब्राह्मणत्व का भाव जागरूक होकर आत्म-बल मिले। तभी हमारा ब्रह्मर्षि अंगिरा जयंती मनाना सार्थक होगा और हम सब ऋषि अंगिरा की यश-कीर्ति फैलाने में सफल होंगे।

न्यूज़ डेस्क

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