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समस्त श्रुतज्ञान का सार है नवकार महामंत्र 

विक्रम बी राठौड़
रिपोर्टर

विक्रम बी राठौड़, रिपोर्टर - बाली / मुंबई 

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­दि.03/11/25 चित्रकूट नगर उदयपुर 

जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेन सूरीश्वरजी म. सा. की शुभ निश्रा में श्री महावीर विद्यालय – चित्रकूट नगर में भद्रंकर परिवार द्वारा आयोजित सामुहिक उपधान तप बडे उत्साह से चल रहा है।

धर्मसभा में प्रवचन देते हुए जैनाचार्यश्री ने कहा कि -नवकार महामंत्र मात्र 68 अक्षर प्रमाण है। नौ पद और आठ संपदामय छोटे से नवकार महामंत्र में समस्त श्रुतज्ञान अर्थात् चौदह पूर्व के ज्ञान का समावेश है ।

जैसे दूध का सार मलाई है, फूल का सार उसकी सुगंध है वैसे ही समस्त श्रुतज्ञान का सार नवकार महामंत्र है।

जैसे एक छोटे से चैक में लाखों-करोडों रुपयों की शक्ति है अथवा एक छोटी-सी दवाई में पूरे शरीर में रहे रोग को शमन करने की ताकात है, वैसे ही इस 68 अक्षर वाले नवकार महामंत्र में चौदह पूर्व का ज्ञान समाया हुआ है।

चौदह पूर्व के ज्ञाता श्रुतकेवली महात्मा भी अपने जीवन के अंत समय नवकार महामंत्र की ध्यान साधना में मग्न बनने का प्रयत्न करते हैं। जीवन में चाहे जितना ज्ञान प्राप्त किया हो वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु के उपघात से सारा ज्ञान भुला दिया जाता है।

जीवन की बाल्यावस्था में आहार की आसक्ति रहती है । युवावस्था में धनार्जन एवं मौज-शौक में मन लीन बनता है और वृद्धावस्था में व्यक्ति को मरण का भय हैरान करता है।

जीवात्मा को सबसे अधिक स्नेह शरीर के साथ है। इसलिए उसे मरण का भय विह्वल करता है। मरण से सारे संबंध क्षण भर में समाप्त हो जाते हैं।

शरीर के प्रति ममत्व के कारण व्यक्ति स्वादिष्ट भोजन, प्रिय वस्तु, धन-वैभव-संपत्ति भी छोड़ने के लिए तैयार हो जाता हैं। परंतु मरण समय मजबूरी से भी इस शरीर को छोड़कर परलोक की ओर चला जाना पड़ता है।

भाड़े के मकान में व्यक्ति उतने समय तक ही रह सकता है, जितना उसने भाड़ा चुकाया है। अथवा बैंक का कैशियर भी तब तक ही पैसा देता है, जब तक बैंक के खाते में पैसे जमा हो। पैसों की जमाराशि पूरी होने पर कैशियर भी कुछ भी नहीं देता है।

वैसे ही इस शरीर में हम तब तक ही रह सकते हैं जिस समय तक का, पुण्य का भाड़ा चुकाया हो ।

इस शरीर को छोड़ते समय यदि हमारे मन में शुभ भाव रहते हैं, तो हमारी सद्गति होती है, अन्यथा दुर्गति ही होती है।

मरण कभी भी आ सकता है। जैसे वाहन चालक को हमेशा सावधान रहना है, वैसे ही आत्महित के अभिलाषी को हमेशा सावधान रहना चाहिए ।

आत्मा देह-मन-वचन-पुद्गल और कर्म से भिन्न है। मृत्यु से कभी आत्मा की मृत्यु नहीं होती, मृत्यु शरीर की होती है। आत्मा तो अजर अमर और अविनाशी है। परंतु कर्म के साथ संयोग होने से जीवात्मा को विभिन्न भवों में जन्म लेकर शरीर धारण करना पड़ता हैं।

इन कर्मों के बंधनों को तोड़ने का सर्वश्रेष्ठ उपाय नवकार महामंत्र की साधना-आराधना है। जीवन के अंतिम समय देह को छोड़ते मन में समाधि भाव पाने के लिए नवकार महामंत्र में मन की एकाग्रता जरूरी है। उस एकाग्रता को पाने के लिए हमें जीवन भर में बार-बार नवकार महामंत्र का स्मरण, ध्यान, जाप करना चाहिए ।

दि.05 नवंबर को प्रातः 7:30 बजे श्री महावीर जैन विद्यालय से पूज्य आचार्य भगवंत का चातुर्मास परिवर्तन श्रीमान महेंद्र जी सेठ खेलगांव गोगुंदा वाले के वहां होगा ।

Khushal Luniya

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