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अंगिरा वंशज क्रांतिकारी संन्यासी स्वामी भीष्म जी महाराज (1859-1984)

लेखक - घेवरचंद आर्य पाली

साभार शिल्पी ब्राह्मण  प्रकाशक- श्री विश्वकर्मा जांगिड समाज पाली राजस्थान

Ghevarchand Aarya
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Ghevarchand Aarya is a Author in Luniya Times News Media Website.

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विक्रम संवत् 1915 के चैत्र माह के कृष्ण की पंचमी अंग्रेजी तारीख 7 मार्च 1859 को हरियाणा के एक छोटे से ग्राम में अंगिरा वंशज एक पांचाल ब्राह्मण परिवार में स्वामी भीष्म जी महाराज का जन्म हुआ।

आपके पिता बारू राम जी एक साधारण गृहस्थ थे परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर थी। तत्कालीन क्रूर अंग्रेज पुलिस के अत्याचार के कारण 1877 में आपके पिताजी का बलिदान हो गया। माता पार्वती देवी तथा बड़े पुत्र लालसिंह ने परिवार को सम्भाला।

स्वामी भीष्म जी सन् 1878 में देश के क्रान्तिकारियों के साथ एक योजना के तहत फौज में भर्ती हुए, तथा 1880 में देश सेवा हेतु फौज की नौकरी छोड़ दी। कहते हैं की फोज की बंदूक लेकर क्रान्तिकारियो की सेवा में पहुंच गए।सन् 1881 में ब्रह्मचारी लाल सिंह ने माता पार्वती देवी की प्रेरणा से एक वेदान्ति साधु गुरू योगीराज से संन्यास की दीक्षा ली और समस्त भारत में स्वामी भीष्म जी महाराज के नाम से विख्यात हुए।

सत्यार्थ प्रकाश का प्रभाव आर्य समाज में प्रवेश

संन्यास ग्रहण करने के बाद स्वामी जी इकतारा लेकर भजन गाते थे। सन् 1886 में रोहतक का एक लड़का ज्ञानीराम सत्यार्थ प्रकाश लेकर स्वामी भीष्म जी के पास आया। और बोला स्वामी जी इसको पढ़ा दो। स्वामी जी ने उस लड़के को साफ मना कर दिया। क्योंकि स्वामी जी के गुरू ने आदेश दिया था कि आर्य समाजी या उसकी पुस्तकों से सदेव दूर रहना। इसलिए वे आर्य समाजी ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश को हाथ लगाना भी पाप समझते थे। दूसरे दिन वह लड़का दो आदमियों को साथ लेकर पुनः आ पहुंचा ओर बोला स्वामी जी आप कहा करते हैं कि कमल का फुल जल में ही रहता है, लेकिन उसके उपर जल का कोई असर नही होता, इसी प्रकार आपके सत्यार्थ प्रकाश का प्रभाव नही पड़ेगा। लड़के के तर्क और काफी आग्रह करने के बाद स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ाना आरम्भ किया। लेकिन लड़के को पढ़ाने के चक्कर में स्वामी जी ही पढ़े गए। और खुद स्वामी जी आर्य समाज के रंग में रंगे गए। कल्पना कीजिए अगर स्वामी भीष्म जी सत्यार्थ प्रकाश नहीं पढ़ते तो उनके विचारों में समाज सुधार का क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आता। और न ही वे आजकल की तरह संसार में प्रसिद्ध होते।

स्वामी भीष्म जी महाराज ने 95 वर्ष तक आर्य समाज के उपदेशक के रूप में काम किया। भीष्म जी महाराज का हिण्डन नदी के पास जंगल में करैहडा आश्रम क्रान्तिकारी भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खान, लाल बहादुर शास्त्री, रामचन्द्र जी विकल और चौधरी चरण सिंह जैसे देश भक्तो की गुप्त शरण स्थली थी। स्वामी जी महाराज का देश के स्वतन्त्रता संग्राम, समाज सुधार और वैदिक धर्म के प्रचार में एक महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

अंगिरा वंशज विश्वकर्मा समाज के उत्थान के लिए स्वामी भीष्म जी महाराज ने अपने जीवन में हजारों छोटे व बड़े शास्त्रार्थ किए और सिद्ध किया कि सभी अंगिरा वंशज विश्वकर्मा समाज वेदोक्त श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं, जिनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं:-

1.घटना सन् 1920 की है जब गांव महुआ जिला दौसा राजस्थान में श्री मांगीलाल जी पांचाल ने यज्ञोपवीत धारण किया तो वहां के नाम धारी ब्राह्मणों ने आपत्ति करी कि विश्वकर्मा समाज के लोग तो शूद्र होते हैं, इन्हें यज्ञोपवीत पहनने का अधिकार नहीं है। गांव में विवाद खड़ा हो गया पंचायत में निश्चय हुआ कि मांगी लाल यह सिद्ध करें कि ये ब्राह्मण हैं। अगस्त 1920 में स्वामी भीष्म जी महाराज को महुवा गांव में चिरंजीलाल जी तथा हिण्डोन सिटी निवासी श्री भंवरलाल जी जांगिड लेकर आए और ब्राह्मण समाज की ओर से पण्डित शंकरलाल और आचार्य लक्ष्मी नारायण जी के साथ शास्त्रार्थ हुआ। जिसमें स्वामी जी ने वेद आदि वैदिक शास्त्रों के प्रमाणों से सिद्ध किया कि विश्वकर्मा समाज के लोग शिल्प कर्म करने के कारण श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं। इन्हे यज्ञोपवीत पहनने का अधिकार है।

2.स्वामी भीष्म जी का यह शास्त्रार्थ सन 1925 में उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के गांव शिवाला में हुआ। यहां एक सुन्दरलाल पांचाल थे, जिन्होंने स्वामी भीष्म जी के शिष्य पण्डित कमल किशोर जी तथा जमालपुर निवासी महाशय प्रहलाद से यज्ञोपवीत संस्कार कराया था, गांव के ब्राह्मणों ने यह कह कर विरोध किया कि शूद्रों को जनेऊ का अधिकार नहीं है। विवाद आस-पास के गांवों में चर्चा का विषय बना।

अन्ततः शास्त्रार्थ का दिन निश्चित हो गया। ब्राह्मण वर्ग की ओर से काशी के दो विद्वान् शास्त्री तथा एक दण्डी स्वामी तथा विश्वकर्मा समाज की ओर से स्वामी भीष्म जी उनके शिष्य पण्डित कमल किशोर, महाशय प्रह्लाद तथा सुखदेव जी शास्त्री थे। इस शास्त्रार्थ को सुनने दूर-दूर से लगभग 7 आठ हजार लोगों की भीड़ आई जिसमें राजपूत, जाट, गुर्जर, बनिये, ब्राह्मण आदि सभी वर्ग के लोग थे। स्वामी भीष्म जी ने सर्व विश्वकर्मा वंशियों को शास्त्रोक्त ब्राह्मण सिद्ध करके विजय पताका फहराई।

शास्त्रार्थ के अगले ही दिन गांव में प्रातःकाल यज्ञ पर स्वामी जी ने 101 विश्वकर्मा वंशियों का यज्ञोपवीत संस्कार कराया, जिसमें स्थानीय ब्राह्मणों ने भी भाग लिया और कहां कि विश्वकर्मा वंशज पांचाल और जांगिड़ तो हमारे बड़े भाई हैं। काशी से आए उनके दोनों विद्वानों ने स्वामी जी के चरण स्पर्श कर आर्शीवाद लेते हुए कहा कि महाराज आपने हमारी आंख खोल दी और उन्होंने लिख कर दिया कि पांचाल और जांगिड़ शास्त्रोक्त श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं।

3.स्वामी भीष्म जी व अन्य विद्वानों ने जगह-जगह शास्त्रार्थ करके यह सिद्ध कर दिया कि विश्वकर्मा के पांचों पुत्रों के वंशज शिल्पी लोग शास्त्रोक्त ब्राह्मण हैं। तब ब्राह्मणों ने होडल-मथुरा के इलाके में प्रचार शुरू कर दिया कि पांचाल और जांगिड़ लोग शूद्र नहीं अपितु क्षत्रिय राजपूत हैं। ऐसा इसलिए इसलिए इस क्षेत्र के पांचाल स्वयं को राजपूत कहते थे।

सन् 1940 में छज्जन राम की पुत्री के विवाह में आए भारत वर्षीय पांचाल ब्राह्मण महासभा, दिल्ली के पदाधिकारी इस विवाह में मौजूद थे। स्थानीय श्री राम नारायण जी ने कहा कि हम तो राजपूत हैं, ब्राह्मण नहीं है। विवाह में दो दिन तक इस विषय पर दिल्ली के भाईयों से विवाद चल रहा था इस सभा में स्वामी भीष्म जी महाराज ने सभी को मंच से शास्त्रों के अनेकों प्रमाण दिखा कर समझाया कि श्रमजीवी विश्वकर्मा के पांचों पुत्रों के वंशज शूद्र नहीं अपितु शास्त्रोक्त ब्राह्मण हैं। सभा में उपस्थित गौड़ ब्राह्मण समाज के विद्वानों ने भी स्वामी जी की बात का करतल ध्वनि से समर्थन किया।

4.हरियाणा राज्य के जिला करनाल के गांव जूंड़ला में जांगिड समाज के लोगों ने स्वामी भीष्म जी महाराज को बुलाया यहां भी विश्वकर्मा समाज के लोगों को स्थानीय ब्राह्मण लोग शूद्र मानते थें। उन्हें धर्म के ठेकेदार ब्राह्मण अपने कुंए से पानी भी नहीं लेने देते थे। यह घटना 1939 की है जब स्वामी भीष्म जी अपने शिष्य स्वामी रामेश्वरानंद जी (पूर्व सांसद करनाल) के साथ जुडला गांव पहुंचे, हजारों ज्ञान पिपासु, सभी बिरादरियों के श्रोताओं के मध्य स्वामी जी ने समाज के धुरंधर विद्वानों के सामने वेद, रामायण, महाभारत और पुराणों के अनेकों प्रमाण देकर सिद्ध कर दिया कि सभी विश्वकर्मा वंशज वेदोक्त ब्राह्मण हैं। क्योंकि वेद उद्धारक महर्षि स्वामी दयानन्द ने शिल्प को यज्ञ माना है, और यज्ञ ब्राह्मण कर्म है। विशेष बात यह है कि स्वामी भीष्म जी के इस शास्त्रार्थ का मध्यस्थ एक मुसलमान था जिसने दोनों पक्षों की बात सुनकर निर्णय दिया कि विश्वकर्मा वंशज सभी प्रमाणों से ब्राह्मण सिद्ध होते हैं। इस शास्त्रार्थ के लिए स्वामी भीष्म जी को घरौंडा के श्री संतराम जी जांगिड लेकर गए थे।

स्वामी भीष्म जी महाराज ने अंगिरा वंशज विश्वकर्मा समाज के गौरवपूर्ण इतिहास को ढूंढ-ढूंढ कर पुस्तक के रूप में पुनः जागरण का काम किया। इसी क्रम में स्वामी जी ने शिल्पी ब्राह्मण, पांचाल ब्राह्मण प्रकाश, महर्षि विश्वकर्मा और विश्वकर्मा दर्शन भाग एक व दो आदि प्रमाणिक पुस्तकें लिखी और विश्वकर्मा समाज के प्राचीन गौरव को पुर्नस्थापित किया। स्वामी जी महाराज ने लगभग 250 पुस्तकें लिखीं, जिनमें से 150 पुस्तकें उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त स्वामी जी ने आर्य समाज के 90 भजन उपदेशक व उपदेशक शिष्य तैयार किए, जिन्होंने पूरे भारत के गांव-गांव में घूम-घूम कर देश की आजादी, सामाजिक सुधार और वैदिक धर्म के प्रचार का काम किया। स्वामी जी की शिष्य परम्परा के हजारों उपदेशक आज भी देश-विदेश में आर्य समाज का प्रचार कर रहे हैं।

स्वामी भीष्म जी महाराज की सेवाओं को देखते हुए वर्ष 1965 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री लाल बहादुर जी शास्त्री ने अपने निवास पर स्वामी जी को सम्मानित किया, वर्ष 1981 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमति इन्दिरा गांधी जी ने अपने निवास पर सम्मानित किया और 1981 में ही कुरुक्षेत्र की भूमि पर स्वामी जी का शानदार सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया, जिसमें उस समय के हरियाणा के मुख्यमंत्री चौधरी भजन लाल जी पूरे मंत्री मण्डल सहित, देश के तत्कालीन गृह मन्त्री ज्ञानी जैल सिंह जी, स्वामी कल्याण देव जी महाराज तथा शहीद भगत सिंह जी के भाई कुलतार सिंह व अनेक सामाजिक व धार्मिक नेताओं ने स्वयं उपस्थित होकर स्वामी जी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए उनका अभिनन्दन किया था।

सन् 1983 में देश के तत्कालीन महा महिम राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी स्वामी जी के पाण्डु पिंडारा आश्रम में उपस्थित हुए थे। 08 जनवरी 1984 को स्वामी भीष्म जी महाराज ने वेद मन्त्रों का पाठ करते हुए प्रातः तीन बजे भीष्म भवन, घरौंडा में अपने नश्वर शरीर को त्याग दिया।

स्वामी भीष्म जी महाराज संन्यास धर्म को अलंकृत करने वाले एक क्रान्तिकारी, स्वतन्त्रता सेनानी, प्रखर समाज सुधारक और आर्य समाज एवं अंगिरा वंशज विश्वकर्मा के पांचों पुत्रों के वंशजों का सबसे लम्बे समय तक काम करने वाले ऐसे संन्यासी हुए जो 125 वर्ष दिर्घायु तक चलते हुए, देखते हुए, लिखते हुए और ओजस्वी वाणी से बोलते हुए देश व धर्म का काम करते रहे। बीसवीं सदी में अंगिरा वंशज विश्वकर्मा समाज के लुप्त-सुप्त साहित्य व इतिहास को ढूंढकर अपनी लेखनी व शास्त्रार्थ के द्वारा जन-जन तक पहुंचाने व समाज के खोये गौरव को पुनः स्थापित करने में स्वामी भीष्म जी महाराज के महत्त्वपूर्ण योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है।

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