Article

वीर हकीकत राय अपने धर्म के लिए बलिदान होकर अमर हो गये, लेकिन विधर्मी नहीं बने

Ghevarchand Aarya
Author

Ghevarchand Aarya is a Author in Luniya Times News Media Website.

Call
  • प्रस्तोता घेवरचन्द आर्य

दोस्तों आज बसन्त पंचमी को हम एक ऐसे वीर बालक वीर हकीकत राय की कहानी सुना रहे हैं जो मात्र 14 वर्ष की अल्पायु में हंसते हंसते धर्म की बलिवेदी पर चढ़ गये लेकिन धर्म नही छोड़ा। इस कहानी से हमें यह भी प्रेरणा मिलती है की धर्म क्या है 14 वर्ष के बालक में अपने धर्म के प्रति ऐसा श्रद्धाभाव कैसे जागरूक हुआ?

कहानी का दुसरा पक्ष इस्लाम और उसके मोलवीयो की विचारधारा समझने में सहायक होती है। जिसमें भाईचारे और मानवीयता का कोई स्थान नहीं है। जो इस्लाम हकिकत राय के समय था वहीं वर्तमान में भी है। आपसे अनुरोध है की यह। कहानी आप अत तक पढ़े और अपने बच्चों को भी सुनावें। जो इस प्रकार है-

बालक वीर हकीकत राय का जन्म 1719 में वर्तमान पाकिस्तान के सियालकोट में लाला बाग मल पुरी के यहां हुआ था । आपकी माता का नाम कोरा देवी ( गौरा देवी) था। गुलामी के जमाने में उन दिनों देश में सभी काम फ़ारसी भाषा में होते थे। इसी से यह कहावत भी बन गई कि-

” हाथ कंगन को आरसी क्या,और पढे लिखे को फ़ारसी क्या”

बाग मल पुरी ने अपने पुत्र को फ़ारसी सिखाने के लिये एक मौलवी के पास उसके मदरसे में पढ़ने के लिये भेजा।
एक बार हकीकत राय का अपने मुसलमान सहपाठियों के साथ झगड़ा हो गया। उन्होंने माता दुर्गा के प्रति अपशब्द कहे, जिसका हकीकत ने विरोध करते हुए कहा,”क्या यह आप को अच्छा लगेगा यदि यही शब्द मै आपकी बीबी फातिमा के सम्बन्ध में कहुं । इसलिये आप को भी अन्य के प्रति ऐसे शब्द नही कहने चाहिये।” इस पर मुस्लिम बच्चों ने शोर मचा दिया की इसने बीबी फातिमा को गालियां निकाल कर इस्लाम और मोहम्मद का अपमान किया है। साथ ही उन्होंने हकीकत को मारना पीटना शुरू कर दिया। मदरसे के मौलवी ने भी मुस्लिम बच्चों का ही पक्ष लिया।शीघ्र ही यह बात सारे स्यालकोट में फैल गई। लोगो ने हकीकत को पकड़ कर मारते-पिटते स्थानीय हाकिम अदीना बेग के समक्ष पेश किया।

यह चित्र धर्मवीर हकीकतराय के बलिदान का एक भावनात्मक दृश्य प्रस्तुत करता है, जहाँ वह खुले दरबार में बंधे होने के बावजूद अडिग और निर्भीक खड़े हैं। उनके चेहरे पर साहस और आस्था की झलक स्पष्ट दिखाई देती है

हाकिम भी समझ गया कि यह बच्चों का झगड़ा है, मगर मुस्लिम लोग उसे मृत्यु-दण्ड की मांग करने लगे। हकीकत राय के माता पिता ने भी दया की याचना की। तब अदीना बेग ने कहा, ”मै मजबूर हूँ। परन्तु यदि हकीकत इस्लाम कबूल कर ले तो उसकी जान बख्श दी जायेगी।”

किन्तु 14 वर्ष के बालक हकीकत राय ने धर्म परिवर्तन से इंकार कर दिया। अब तो काजी , मोलवी उसे मारने को तैयार हो गए। पंजाब के नवाब ज़करिया खान के पास लाहौर में फरियाद की गयी । स्यालकोट से मुगल घुड़सवार हकीकत को लेकर लाहौर के लिये रवाना हो गये। हकीकत राय को यह सारी यात्रा पैदल चल कर पूरी करनी थी। आखिर दो दिनों की यात्रा के बाद हकीकत राय को बन्दी बनाकर लाने वाले सैनिक लाहौर पहुंचे। पंजाब के तत्कालिक सूबेदार ज़करिया खान के समक्ष पेश किया गया। यहां भी हकीकत के साथ स्यालकोट से आये मुस्लिम सहपाठियों, मुल्लाओं और काजियों ने हकीकत राय को मौत की सजा देने की मांग की। उन्हें लाहोर के उलिमाओं का भी समर्थन मिल गया।

नवाब ज़करिया खान भी समझ गया की यह बच्चों का झगड़ा है, मगर मुस्लिम उलेमा हकीकत की मृत्यु या मुसलमान बनने से कम पर तैयार न थे। परन्तु यहाँ भी हकीकत राय ने अपना धर्म छोड़ने से मना कर दिया। उसने पूछा-
”यदि मै मुसलमान बन जाऊं तो मुझे मौत नही आएगी क्या ? क्या मुसलमानो को मौत नही आती?”
तो उलिमयो ने कहा,” मौत तो सभी को आती है।” तब हकीकत राय ने कहा,” तो फिर मै अपना धर्म क्यों छोड़ू , जो सभी को ईश्वर की सन्तान मानता है और क्यों इस्लाम कबुलु जो मेरे मुसलमान सहपाठियों के मेरी माता भगवती को कहे अपशब्दों को सही ठहराता है , मगर मेरे न कहने पर भी उन्ही शब्दों के लिये मुझसे जीवित रहने का भी अधिकार छिन लेता है।

इस प्रकार सारा दिन लाहौर दरबार में शास्त्रार्थ होता रहा, मगर हकीकत राय इसलाम​ कबूलने को तैयार न हुए । जैसे जैसे हकीकत की विद्वता ,साहस और बुद्धिमता प्रगट होती रही, वैसे वैसे मुसलमानो में उसे मारने का उत्साह भी बढ़ता रहा। परन्तु कोई स्वार्थ, कोई लालच और न ही कोई भय उस 14 वर्ष के बालक हकीकत को डिगाने में सफल रहा।

आखिरकार हकीकत राय के माता पिता ने एक दिन का समय माँगा, जिससे वो हकीकत राय को समझा सके। उन्हें समय दे दिया गया। रात को हकीकत राय के माता पिता उसे जेल में मिलने गए। उन्होंने भी हकीकत राय को मुसलमान बन जाने के लिये तरह तरह से समझाया। माँ ने अपने बाल नोचे, रोई , दूध का वास्ता दिया। मगर हकीकत ने कहा,”माँ! यह तुम क्या कर रही हो। तुम्हारी ही दी शिक्षा ने तो मुझे ये सब सहन करने की शक्ति दी है। मै कैसे तेरी दी शिक्षाओं का अपमान करूं। आप ही ने सिखाया था कि धर्म से बढ़ कर इस संसार में कुछ भी नही है। आत्मा अमर है।”

अगले दिन वीर बालक हकीकत राय को दोबारा लाहौर के सूबेदार के समक्ष पेश किया गया। सभी को विश्वास था कि हकीकत आज अवश्य इस्लाम कबूल कर लेगा। उससे आखरी बार पूछा गया कि क्या वो मुसलमान बनने को तैयार है। परन्तु हकीकत ने तुरन्त इससे इंकार कर दिया। अब मुलिम उलेमा हकीकत के लिये सजाये मौत मांगने लगे। ज़करिया खान ने इस पर कहा,” मै इसे मृत्यु दण्ड कैसे दे सकता हूं ? यह राष्ट्रद्रोही नही है और ना ही इसने हकुमत का कोई कानून तोड़ा है?” तब लाहौर के काजियों ने कहा कि यह इस्लाम का मुजरिम है। इसे आप हमे सौंप दे। हम इसे इस्लामिक कानून (शरिया) के मुताबिक सजा देगें। दरबार में मौजूद दरबारियों ने भी काजी की हाँ में हाँ मिला दी। अतः नवाब ने हकीकत राय को काजियों को सौंप दिया कि उनका निर्णय ही आगे मान्य होगा।

अब लाहौर के उलेमाओं​ ने​ मुस्लिम शरिया के मुताबिक हकीकत की सजा तय करने के लिये बैठक की। इस्लाम के मुताबिक कोई भी व्यक्ति इस्लाम , उसके पैगम्बर और कुरान की सर्वोच्चता को चुनौती नही दे सकता। और यदि कोई ऐसा करता है तो वो ‘शैतान’ है। शैतान के लिये इस्लाम में एक ही सजा है कि उसे पत्थर मार मार कर मार दिया जाये।

1849 में गणेशदास रचित पुस्तक, ’चार-बागे पंजाब’ के मुताबिक इसके लिए लाहौर में बकायदा मुनादी करवाई गई कि- अगले दिन हकीकत नाम के शैतान को (संग-सार) अर्थात पत्थरो से मारा जायेगा और जो जो मुसलमान इस मौके पर सबाब (पुण्य) कमाना चाहे आ जाये। लो जी एक 14 वर्ष के निर्दोष बालक का जिसका कोई अपराध ही नहीं बनता उसको पत्थरों से मारने वाले को इस्लाम में पुण्य मिलता है? इसलिए आज भी इस्लाम मानने वाले काफीरो पर हमला करने के लिए छतों से पत्थरों की बारीस करते हैं।

अगले दिन बसन्त पंचमी का दिन था वीर हकीकत राय को लाहौर की कोतवाली से निकाल कर उसके सामने ही गड्डा खोद कर कमर तक उसमे गाड़ दिया गया। लाहौर के सब मुसलमान निर्दोष हकीकत राय को पत्थरो से मारने का पुण्य कमाने हेतु उसे चारो तरफ से घेर कर खड़े हो गए। हकीकत राय से अंतिम बार मुसलमान बनने के बारे में पूछा गया। हकीकत ने अपना निर्णय दोहरा दिया कि मुझे मरना कबूल है पर इस्लाम नही।

ऐसा सुनते ही लाहौर के काजियों ने हकीकत राय को संग-सार (पत्थर मारने) करने का आदेश सुना दिया। आदेश मिलते ही उस 14 वर्ष के निर्दोष बालक पर हर तरफ से पत्थरो की बारिश होने लगी। हजारों मुस्लिम लोग उस बालक पर पत्थर बरसा रहे थे,जबकि हकीकत ‘राम-राम’ का जाप कर रहा था। शीघ्र ही उसका सारा शरीर पत्थरो की मार से लहूलुहान हो गया और वो बेहोश हो गया। अब पास खड़े जल्लाद को उस बालक पर दया आ गयी की कब तक यह बालक यूं पत्थर खाता रहेगा। इससे यही उचित समझा की मै ही इसे मार दू। इतना सोच कर उसने अपनी तलवार से हकीकत राय का सिर काट दिया। रक्त की धाराएं बह निकली और वीर हकीकत राय 1734 में बसन्त पंचमी के दिन अपने धर्म पर बलिदान हो गया।

दोपहर बाद हिन्दुओं को हकीकत राय के शव का वैदिक रीती से अन्तिम संस्कार करने की अनुमति मिल गई। हकीकत राय के धड़ को गड्ढे से निकाला गया। उसके शव को गंगाजल से नहलाया गया। उसकी शव यात्रा में सारे लाहौर के हिन्दू आ जुटे। सारे रास्ते उस के शव पर फूलों की वर्षा​ होती रही। इतिहास की पुस्तको में दर्ज है कि लाहौर में ऐसा कोई फूल नही बचा था जो हिन्दुओं ने खरीद कर उस धर्म-वीर के शव पर न चढ़ाया हो।

कहते है कि किसी माली की टोकरी में एक ही फूलो का हार बचा था जो वो स्वयं चढ़ाना चाहता था, मगर भीड में से एक औरत अपने कान का गहना नोच कर उसकी टोकरी में डाल के हार झपट कर ले गई। 1 पाई में बिकने वाला वो हार उस दिन 15 रुपये में बिका। यह उस आभूषण का मूल्य था। हकीकत राय का अंतिम संस्कार रावी नदी के तट पर कर दिया गया।
इस धर्म वीर के माता पिता अपने पुत्र की अस्थियां लेकर हरिद्वार गए,मगर फिर कभी लौट के वापस नही आये।
दोस्तों यह कहानी आपको कैसी लगी इस पर अपनी राय अवश्य देवे।

One Comment

  1. Do you have a spam issue on this site; I also am a blogger, and I was wondering your situation; we have developed some nice procedures and we are looking to swap strategies with others, why not shoot me an e-mail if interested.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
07:02