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प्रभु श्रीराम: कुशल संगठन के आदर्श मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम, सबके राम

इस भूतल पर प्रभु श्रीराम जैसे यथार्थ आदर्श वे स्वयं एकमात्र हैं!  श्रीराम ने आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श सखा, आदर्श राजा आदि अनेक आदर्श स्थापित किए ही, परंतु उसके साथ ही श्रीराम द्वारा किया गया कुशल संगठन कार्य भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। अकस्मात उत्पन्न वनवास के काल में कठिन प्रसंगों में भी अयोध्या से बिना कोई सहायता लिए स्वयं वन में स्थित विभिन्न वीरों का संगठन खडा कर असुरों का संहार कर उन समस्याओं का समाधान किया। वनवास को निकलते समय श्रीराम, सीता माता एवं लक्ष्मण ये केवल तीनों ही थे; परंतु रावण का वध कर अयोध्या लौटते समय वे लंका विजय में सहायता करने वाले सेना के साथ आए। इसलिए हिन्दू समाज की दृष्टि से प्रभु श्रीराम के इस संगठन कार्य का अध्ययन कर उसका आचरण करना आवश्यक है। 500 वर्ष की प्रतीक्षा के उपरांत अयोध्या में प्रभु श्रीराम का मंदिर बन रहा है । ऐसे स्वर्णिम क्षण के समय हिन्दुओं ने श्रीराम के संगठन कार्य का आदर्श सामने रखा, तो संपूर्ण भारत के अन्य आक्रमित मंदिर भी हिन्दुओं को प्राप्त होने में समय नहीं लगेगा।

मर्यादा पुरूषोत्तम प्रभु श्री राम अच्छाई और सदाचार के महानायक की तरह हैं। सबसे अच्छे, सबसे ईमानदार व्यक्ति की कल्पना करें जिसे आप जानते हैं, भगवान श्रीराम !

मनुष्य के रूप में श्रीराम नियमों का पालन करने, एक अच्छा इंसान होने के स्वर्ण मानक की तरह “मर्यादा पुरूषोत्तम” कहलाए गए है. मर्यादा पुरषोत्तम शब्द का मूल अर्थ यह है कि जब सत्यनिष्ठा के साथ जीवन जीने की बात आती है तो वह सर्वोच्च आदर्श, सर्वोच्च श्रेणी के व्यक्ति होते हैं।

जब हम कहते हैं “श्री राम की जय” तो यह उनकी अद्भुतता का बड़ा बखान करने जैसा है। युगों युगों तक लोग प्रभु श्रीराम का आदर कर रहे हैं क्योंकि वे किसी महाकाव्य कथा का नायक मात्र नहीं है, श्रीराम धार्मिकता और नैतिक शक्ति का प्रतीक है।

वनवास में मित्र निषादराज से सहायता तथा उसके प्रति कृतज्ञता का भाव

माता कैकेयी के द्वारा मांगे गए वरदान के अनुसार श्रीराम ने वनवास जाने की तैयारी की । महर्षि वसिष्ठ के गुरुकुल में होने के समय श्रृंगवेरपुर के आदिवासी निषादराजा गुह से श्रीराम की अत्यंत घनिष्ठ मित्रता थी । अयोध्या से बाहर निकलने पर जब निषादराज को श्रीराम के वनवास जाने का समाचार मिला, तब उन्होंने श्रीराम को स्वयं का राज्य सौंपकर वही रहने का अनुरोध किया; परंतु श्रीराम ने वनवास धर्म के पालन को कर्तव्य बताकर किसी भी नगर में प्रवेश करने में अपनी असमर्थता जताई तथा उसके राज्य का स्वीकार करना अस्वीकार किया। उसके राज्य में स्थित वन में वृक्ष के नीचे पत्तों का बिछौना बनाकर श्रीराम ने वनवास की अपनी पहली रात बिताई। साथ ही इसी स्थान पर प्रभु श्रीराम ने राजवंश के वस्त्र त्यागकर वनवासी के वस्त्र धारण किए।

मर्यादा पुरूषोत्तम प्रभु श्री राम

सुनिए जबरदस्त श्रीराम अयोध्या राममंदिर गीत हंसराज रघुवंशी के साथ 


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निषादराजा ने ही मांझी वंश के केवटराज को बुलाकर उसकी नांव से श्रीराम, सीता एवं लक्ष्मण को गंगा नदी पार कराई, साथ ही उनके वनवास का प्रबंध करने हेतु वे साथ गए। श्रीराम ने वहां से प्रयागराज स्थित भारद्वाज मुनी के आश्रम में जाकर जब उनसे वनवास के निवास के संदर्भ में पूछा, तब भारद्वाज मुनी ने यमुना नदी के परे स्थित चित्रकूट पर्वत पर वनवास काल में निवास करने के लिए कहा तथा निषादराजा को स्वयं के राज्य में लौटने के लिए कहा। उसके अनुसार निषादराज ने आज्ञा का पालन किया। वनवास में निषादराज द्वारा की गई सहायता श्रीराम नहीं भूले, अपितु लंका विजय प्राप्त कर वापस लौटते समय प्रभु श्रीराम ने अपना पुष्पक विमान रोककर निषादराज को भी स्वयं के राज्याभिषेक समारोह में सम्मिलित होने हेतु साथ लिया। उसके उपरांत भी अश्वमेध यज्ञ के समय निषादराज को आमंत्रित कर सम्मान का स्थान दिया था। इससे अपनी सहायता करने वाले के प्रति कृतज्ञता का भाव कैसा होना चाहिए, इसका प्रभु श्रीराम ने आदर्श स्थापित किया है।

श्रीराम का वनवास कालीन कार्य

वनवास के काल में श्रीराम ने विश्वामित्र, अत्रि, अगस्ति आदि ऋषि-मुनियों के आश्रमों को राक्षसों के उपद्रव से स्थायी रूप से मुक्त किया। इस काल में श्रीराम-लक्ष्मण ने वन में रहने वाले सामान्य लोगों को भी राक्षसों के आतंक से मुक्त कराया। लगभग 12 वर्ष तक प्रभु श्रीराम वनवास में यह कार्य कर रहे थे। इसी काल में अत्याचारी राक्षसों के वध के उपरांत उन्होंने वनवासी समुदाय को धनुष्य-बाण चलाने का प्रशिक्षण देकर शस्त्र विद्या सिखाई। उसके कारण आज भी अधिकांश वनवासी जन धनुष्य-बाण का उपयोग करते हुए दिखाई देते हैं। श्रीराम ने उन्हें धर्म-परंपरा सिखाई, उसके कारण हमारे यहां वन में भी राजपरंपरा दिखाई देती है, साथ ही उनकी प्रथा-परंपराओं में समानता दिखाई देती है। इस कार्य के कारण श्रीराम को रावण के विरुद्ध लडने हेतु वनवासी सेना की बडी सहजता से सहायता मिली।


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सुग्रीव की सहायता करना

किष्किंधा नगर का राजा बाली बहुत पराक्रमी था तथा एक वरदान के कारण उसके विरुद्ध लड़ने वाले शत्रु का आधा बल उसे मिलता था। उस वरदान के कारण किसी भी युद्ध में वह बड़ी सहजता से जीत जाता था। उसने देवताओं को भी पराजित किए महापराक्रमी रावण की गर्दन को अपनी भुजाओं में दबाकर संपूर्ण विश्व की परिक्रमा की थी। उसके कारण रावण ने उसके सामने अपनी पराजय स्वीकार की थी। बाली ने एक प्रसंग में घटित अवधारणा के कारण अपने भाई सुग्रीव को राज्य से बाहर निकाल दिया था तथा उसकी पत्नी रूमा को बलपूर्वक अपने पास रखा था। उसके कारण सुग्रीव ने ऋष्यमुख पर्वत में शरण ली थी।

यहां युद्धनीति पर विचार करने पर यह समझ में आता है कि जिस रावण ने सीता हरण किया था, उसी रावण को बाली ने बडी सहजता से पराजित किया था; इसलिए श्रीराम यदि बाली से सहायता मांगते, तो रावण भयभीत होकर सीता माता को सहजता से लौटा देता; परंतु ऐसी स्थिति में भी प्रभु श्रीराम ने अन्यायी बाली से सहायता नहीं ली, अपितु उन्होंने सुग्रीव की पत्नी को बलपूर्वक अपने पास रखने वाले बाली के विरोध में जाकर अन्यायग्रस्त सुग्रीव की सहायता करना सुनिश्चित किया। इससे यह समझ में आता है कि श्रीराम ने किसी बलवान से सहायता न लेकर वे अन्यायग्रस्त सुग्रीव के पक्ष में खडे रहे। प्रभु श्रीराम ने अन्यायी बाली का वध कर सुग्रीव का राज्याभिषेक किया तथा उन्हें उनकी पत्नी पुनः वापस दिलाई; परंतु उसी समय किष्किंधा के राजकुमार के रूप में पराक्रमी बाली पुत्र अंगद की नियुक्ति कर उसे भी अपने साथ जोड लिया।


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अंगद की बुद्धिकुशलता का उपयोग कर लेना

राजकुमार अंगद ने सीता माता की खोज में वानर सेना का नेतृत्व किया। जटायु के भाई संपाती से सीता माता के लंका में होने की जानकारी लेकर अंगद समुद्र पार करने हेतु तैयार हुआ; परंतु उस समय उसके समूह का नेता होने से जामवंत ने उसे लंका जाने नहीं दिया तथा तब महाबली हनुमान लंका चले गए। उस समय महाबली हनुमान को लंका भेजने का कारण यह था कि महाबली हनुमान ने लंका के असुरों का नाश किया, सीता माता को श्रीराम का संदेश पहुंचाने का कार्य किया, साथ ही लंकादहन कर असुर सेना के मन में आतंक उत्पन्न किया। उसके अनेक लाभ मिले।

भगवान श्रीराम अंगद के शौर्य एवं बुद्धि पर संपूर्ण विश्वास करते थे, इसलिए उन्होंने राजकुमार अंगद को अपने दूत के रूप में रावण से मिलने हेतु भेजा तथा उसे बताया कि रावण ने यदि सीता माता को सम्मानपूर्वक वापस लौटाया, तो वे रावण से युद्ध नहीं करेंगे। वहां जाने पर रावण ने भेदभाव की नीति का उपयोग कर अंगद से कहा, ‘‘बाली मेरा मित्र था। इसी राम ने बाली को मारा है तथा जिसने तुम्हारे पिता को मारा है, तुम उसी के संदेशवाहक बन गए हो, जो बहुत लज्जाजनक है।’’ उस समय राजपुत्र अंगद ने रावण को फटकार लगाते हुए कहा, ‘‘हे मूर्ख रावण, तुम्हारे इन शब्दों के कारण जिनमें श्रीराम के प्रति भक्ति नहीं है, उन्हीं के मन में विसंवाद उत्पन्न हो सकता है। बाली ने जो अन्याय किया था, उसका उसे फल मिला। कुछ समय उपरांत तुम भी वहां जाकर, यमलोक पहुंचे अपने मित्र का कुशलक्षेम पूछो।’’

श्रीराम के दूत के रूप में स्थित महाबली अंगद ने रावण को समझाने का बहुत प्रयास किया, परंतु वह सफल नहीं हो सका। उसने रावण का अहंकार दूर करने हेतु उसे इसका स्मरण दिलाया कि पाताल में बली राजा पर विजय प्राप्त करने हेतु जाने पर वहां रावण को बंदी बनाया गया था, सहस्रबाहू राजा ने भी रावण को बंदी बनाया था, साथ ही बाली ने भी रावण को अपने बगल में दबाकर रखा था. इसलिए रावण को पराजित किया जा सकता है। अब तो साक्षात श्री विष्णु के अवतार स्वयं रावण से युद्ध करने हेतु समुद्र तट पर तैयार बैठे हैं, अतः रावण के अहंकार से रावण का नाश तो होगा ही, परंतु राजसभा में बैठे सभी लोगों का भी नाश होकर उनकी पत्नियां-बच्चे अनाथ बन जाएंगे। अतः अभी आप श्रीराम की शरण में जाएं। यह सुनकर क्रोधित रावण ने अंगद का मस्तक काटने का आदेश दिया। उस समय अंगद ने प्राण विद्या का उपयोग कर अपना पैर राजसभा की भूमि पर रखकर रावण को चुनौती देते हुए कहा, ‘‘यदि तुम्हारी इस राजसभा में बैठे किसी भी शूर एवं बलवान योद्धा ने इस भूमि से मेरा पैर हिला दिया, तो मैं अपनी पराजय स्वीकार करूंगा तथा श्रीराम भी बिना युद्ध किए वहां से चले जाएंगे।

मेघनाथ एवं कुंभकर्ण सहित रावण के अनेक बडे योद्धाओं ने यह चुनौती स्वीकार की, परंतु उनमें से कोई भी अंगद का पैर हिला नहीं पाए। अंत में रावण स्वयं अंगद का पैर हिलाने के लिए आ गया तथा उसने अंगद का पैर पकड लिया, परंतु अंगद ने अपना पैर छुडवा लिया तथा वह रावण से कहने लगा ‘‘हे रावण, अभी तुमने जिस प्रकार मेरे पैर पकड लिए हैं, वैसे तुमने श्रीराम के पैर पकड लिए होते, तो अच्छा होता।’’ इससे अंगद की विद्वत्ता, शत्रु की राजसभा में जाकर उसे हतोत्साहित करने का उसका कौशल, साथ ही उसके मन में निहित श्रीराम के प्रति का अपार भाव समझ में आता है तथा उससे श्रीराम ने उसे अपने दूत के रूप में क्यों चुना था, यह भी समझ में आता है। इस प्रकार श्रीराम ने सीता माता की खोज करने हेतु महाबली हनुमान, जामवंत, नल-नील से भी सहायता ली तथा उनके गुणों का उचित उपयोग कर लिया। विश्वकर्मा के पुत्र नल-नील ने उन्हें प्राप्त वरदान का उपयोग लंका में प्रवेश करने हेतु समुद्र पर सेतु बनाने हेतु कर श्रीराम की सहायता की।


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रावण के भाई बिभीषण को शरण देना तथा युद्ध में उसकी सहायता लेना

विभीषण रावण का सबसे छोटा भाई था। भले ही वह राक्षस कुल में जन्मा हो; परंतु वह श्री विष्णु का परम भक्त था। राजसभा में हुई चर्चा में उसने रावण को यह बताया कि श्रीराम की शरण में जाकर सीता माता को श्रीराम को सौंपना ही उसके लिए हितकारी है। उसके कारण रावण ने विभीषण पर क्रोधित होकर राज्य से बाहर निकाल दिया। उस समय विभीषण शरण मांगने हेतु श्रीराम के पास आ गया। जब शत्रु का भाई ही शरण मांगने आए, तो उसके वास्तविक उद्देश्य की आश्वस्तता करना आवश्यक था। इस पर श्रीराम ने सर्वप्रथम हनुमानजी का मत पूछा। तब हनुमानजी ने लंका में विभीषण से हुई भेंट तथा श्रीराम को विभीषण की भगवद्भक्ति की जानकारी देकर विभीषण को शरण देने के लिए कहा; परंतु जामवंत, नल-नील इत्यादि मंत्रियों के मन में संदेह बना रहने से श्रीराम ने उनका संशय दूर करने का निर्णय लिया। उसके लिए श्रीराम ने उन्हें इतिहास के उदाहरण बताकर शरण मांगने आए व्यक्ति की सहायता करने का कर्तव्य समझाया।

श्रीराम के इस निर्णय के कारण विभीषण शत्रुपक्ष के संपूर्ण प्रदेश के, शस्त्रों के, असुरों की सेना के तथा शक्ति के रहस्य जानने वाला सहयोगी बन गया। उसके कारण युद्ध में उसने प्रभु श्रीराम की उचित सहायता कर उनकी विजय का मार्ग प्रशस्त किया था।

रावण वध के उपरांत लंका राजा विहीन बन गई, तो वहां उचित राजा की आवश्यकता है, इसे जानकर श्रीराम ने लंका के अगले राजा के रूप में विभीषण को चुना। केवल इतना ही नहीं, अपितु ‘मरणांति वैरानी…’ (अर्थ : मृत्यु के उपरांत शत्रुता समाप्त होती है) के वचन के अनुसार स्वयं ही रावण का अंतिम संस्कार किया । इसके कारण श्रीराम ने लंका की प्रजा का भी मन जीत लिया। भगवान श्रीराम का लक्ष्य लंका की सत्ता हाथ में लेना नहीं था; इसलिए लक्ष्मण को जब सोने की लंका का मोह हुआ, तब श्रीराम ने ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी’ (अर्थ : स्वर्ग की अपेक्षा जन्मभूमि सर्वश्रेष्ठ है), इस वचन का स्मरण दिलाकर मातृभूमि का महत्व विशद किया। इससे भी श्रीराम का अद्भुत संगठन कौशल समझ में आता है।

वनवास में जाने की पिता की आज्ञा का पालन करते-करते लंका विजय हेतु श्रीराम का संगठन

वास्तव में देखा जाए, तो जब रावण से सीता हरण किया, उस समय श्रीराम यदि अयोध्या की सेना तथा अपने भाइयों से सहायता मांगते, तो उन्हें बडी सहजता से उनकी सहायता मिल जाती; परंतु वनवास में धन संग्रह करना वर्जित होने से सेना का वेतन, युद्ध सामग्री पर व्यय तथा सेना के लिए आवश्यक अन्न-अनाज की आपूर्ति नहीं की जा सकती थी, साथ ही उससे पिता को दिए गए वनवास के वचन का भंग हो जाता। इसलिए प्रभु श्रीराम ने वनवासियों, वानरों आदि समुदायों से निकटता कर उनकी सहायता ली तथा उन्हीं की सेना खडी की। इस सेना को वन में उपलब्ध फल खाने की आदत होने से तथा उनके द्वारा वन में स्थित वृक्षों-पत्थरों आदि का शस्त्र के रूप में उपयोग करने से रावण की सेना से युद्ध करना भी उन्हें संभव हुआ। इससे श्रीराम ने सीता माता को छुड़ाने के आदर्श पति धर्म का पालन तो किया ही; परंतु उसके साथ पिता को दिए गए वनवास के वचन का भंग न होने देकर आदर्श पुत्र धर्म का तथा आचारधर्म का भी पालन किया।

इसके द्वारा प्रभु श्रीराम ने वनवास में ही कुशल संगठन का आदर्श स्थापित किया है। अतः हमने भी इसी प्रकार से संगठन बनाया तथा संगठन में स्थित प्रत्येक व्यक्ति के कौशल का उचित उपयोग कर लिया, तो रामराज्य रूपी हिन्दू राष्ट्र को पुनः साकार करना कठिन नहीं है।

लेखक

– श्री. रमेश शिंदे, राष्ट्रीय प्रवक्ता, हिन्दू जनजागृति समिति
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