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14 जनवरी मकर संक्रांति पर विशेष आलेख

मकर संक्रान्ति पर तील का महत्व

लेखक: घेवरचन्द आर्य पाली
Ghevarchand Aarya
Author

Ghevarchand Aarya is a Author in Luniya Times News Media Website.

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ज्योतिष शास्त्र अनुसार जितने समय काल में पृथिवी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा पूरी करती है, उस को एक ‘सौर वर्ष’ कहते हैं। और कुछ लम्बी वर्तुलाकार जिस परिधि पर पृथिवी परिभ्रमण करती है, उसको ‘सक्रान्ति-वृत्त’ कहते हैं । ज्योतिषियों द्वारा इस सक्रान्ति-वृत्त के १२ भाग कल्पित किए हुए हैं। उन भागों के नाम उन-उन स्थानों पर आकाश स्थित नक्षत्र पुंञ्जों से मिल कर बनी हुई कुछ मिलती जुलती आकृति वाले पदार्थों के नाम पर रख लिए गए हैं। यथा – 1मेष, 2 वृष, 3 मिथुन, 4 कर्क, 5 सिंह, 6 कन्या, 7 तुला, 8 वृश्चिक, 9 धनु, 10 मकर, 11 कुम्भ, 12 मीन । ज्योतिष शास्त्र में काल गणना के लिए इनको ‘राशि’ कहते है।

ज्योतिष शास्त्र अनुसार संक्रांति

जब पृथिवी एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करती है तो उस समय या दिन को ‘संक्रान्ति’ कहते हैं। पृथिवी के इस संक्रमण को सूर्य का संक्रमण कहते हैं। छः मास तक सूर्य क्रान्ति-वृत्त से उत्तर की ओर उदय होता रहता है और छः मास तक दक्षिण की ओर निकलता रहता है। प्रत्येक छ:मास की अवधि का नाम ‘अयन’ है। सूर्य के उत्तर ओर उदय की अवधि को ‘उत्तरायण’ और दक्षिण ओर उदय की अवधि को ‘दक्षिणायन’ कहते हैं। उत्तरायण काल में सूर्य उत्तर की ओर से उदय होता हुआ दिखता है और उस में दिन बढ़ता जाता है और रात्रि घटती जाती है। दक्षिणायन में सूर्योदय दक्षिण की ओर दृष्टिगोचर होता है और उसमें रात्रि बढ़ती जाती है और दिन घटता जाता है।

सूर्य का मकर राशि में प्रवेश

सूर्य की मकर राशि की संक्रान्ति से उत्तरायण और कर्क-संक्रान्ति से दक्षिणायन प्रारम्भ होता है। सूर्य के प्रकाश अधिक्य के कारण उत्तरायण विशेष महत्त्व- शाली माना जाता है और अत: एवं उत्तरायण के आरम्भ दिवस को “मकर संक्रान्ति” कहकर अधिक महत्त्व दिया जाता है। स्मरण अतीत अर्थात चिरकाल से यह पर्व मनाया जाता है। मकरसंक्रांति के अवसर पर शीत अपने योवन पर होता है। जंगल, वन, पर्वत सर्वत्र शीत का आतंक छा जाता है सारा जगत शीत ऋतु का लोहा मानने लगता है। दिन की अब तक यह अवस्था है कि सूर्यदेव उदय होते ही अस्ताचल के गमन की तैयारियां आरम्भ कर देते है मानों दिन रात्रि में लीन ही हुआ जाता है । रात्रि सुरसा राक्षसी के समान अपना देह बढ़ाती ही चली जाती है !

मकर संक्रान्ति को शरीर त्याग का महत्व

यह पर्व सनातन काल से मनाया जा रहा है। जो भारत के सब प्रान्तों में प्रचलित है। मकर संक्रान्नि के दिन से मकर रात्रि को निगलना आरम्भ कर देता है। इसी दिन सूर्यदेव उत्तरायण में प्रवेश करते हैं। इस काल की महिमा संस्कृत साहित्य में वेद से लेकर आधुनिक ग्रन्थ पर्यन्त विशेष वर्णन की गई है। वैदिक ग्रन्थों में उस को ‘देवयान’ कहा गया है। ज्ञानी लोग इसी दिन स्वशरीर त्याग तक की अभिलाषा उत्तरायण में रखते हैं। आजीवन ब्रह्मचारी भीष्म पितामह ने इसी उत्तरायण के आगमन तक शर-शय्या पर शयन करते हुए प्राण त्याग की प्रतीक्षा की थी। शास्त्रों के अनुसार इस समय देह त्यागने से मनुष्य की आत्मा सूर्य-लोक में होकर प्रकाश मार्ग से प्रयाण करती है। इसलिए जिन लोगों की मृत्यु किसी भी दिन हुई हो उनके परिवार जनों द्वारा मकर संक्रान्ति को बैठक करने की परम्परा प्रचलित हैं। जिसमें आगंतुकों को तील की हेली और मक्की के बांकले की मनुहार की जाती है। और यह मान लिया जाता है कि ऐसा करने से मरने वाले को सूर्य लोक में स्थान मिलेगा।

उत्तर अयन इसी तिथि को है, सविता का सु प्रवेश हुआ ।
मान दिवस का इस ही कारण, अब से है विशेष हुआ ।।

वेद प्रदर्शित देवयान का,
जगती में उत्सव संक्रान्ति का,
जनता में विस्तार हुआ ।
सु प्रसार हुआ ।। १ ।।

पुराणों में तील का महत्व

सर्वत्र शीत ऋतु के बचाव और उपचार की विधियां प्रचलित हैं। जिसमें खान पान भी महत्वपूर्ण है। वैद्यक शास्त्र में शीत के प्रतीकार तिल, तैल, तूल (रुई) बतलाए हैं। जिनमें तिल सब से मुख्य है। इसलिए पुराणों में इस पर्व के अवसर तिलों के प्रयोग का विशेष माहात्म्य गाया गया है। और उनको पाप-नाशक कहा गया है। पदम पुराण में निम्नलिखित वचन प्रसिद्ध है –
तिलस्नायो तिलोद्धर्ती तिलहोमी तिलोदकी । तिलभुक तिलदाता च षट्तिलाः पापनाशनाः ।।

अर्थ- तिल मिश्रित जल से स्नान, तिल का उबटन, तिल का हवन, तिल का जल, तिल का भोजन और तिल का दान ये छः तिल के प्रयोग पापनाशक हैं।

इस दिन दान पुण्य का महत्व

मकर संक्रान्ति के दिन भारत के सब प्रान्तों में तिल और गुड़ सर्वत्र उपलब्ध था इसलिए तील और गुड़ खांड के लड्डू बनाकर जिनको ‘तिलवे’ कहते हैं, दान किए जाने कि परम्परा प्रचलित हुई है। स्त्रीयों द्वारा स्त्रीयों तेरूदे दान दिए जाते हैं। जिसके तहत स्त्रीयां एक ही प्रकार की 13 वस्तुएं खरीद कर दुसरी स्त्रीयों को दान देती है। पुरूष तीलो के लड्डू खाद्य सामग्री सर्दी के बचाव के वस्त्र कम्बल आदि दान देते हैं। सनातन काल से चली आ रही यह परम्परा अब भी प्रचलित है।

शीत शिशिर हेमन्त का, हुआ परम प्रधान्य !
तैल, तूल, तिल, तपन का, सब जग में है मान्य ।।
तिल के मोदक, खिचड़ी, कंबल, आज दान में देते हैं।
दीनों का दुख दूर भगा कर, उन की आशीष लेते हैं ॥
सतील सुगंधित सु-साकल्य से होम यज्ञ भी करते हैं।
हिम से आवृत नभ-मण्डल को शुद्ध वायु से भरते हैं ॥ २ ॥
पं. सिद्ध गोपाल काव्य तीर्थ कवि रत्न कृत

गीता में मकर संक्रांति दान का महत्व

मकर संक्रान्ति पर्व के अवसर पर जरूरत मंद दीन एवं असहाय जन को शीत निवारणार्थ कम्बल और घृत दान करने की प्रथा सनातनियों में प्रचलित है। “कम्बलवन्तं न बाधते शीतम्”
की उक्ति संस्कृत में प्रसिद्ध ही है। घृत को भी वैद्यक में ओज और तेज का बढ़ाने वाला तथा अग्नि दीपक कहा गया है। आर्य पर्वों पर दान, जो धर्म का एक स्कन्ध है, अवश्यमेव ही कर्तव्य है।
और- देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्विकं स्मृतम् ।
गीता, अध्याय १७ । श्लोक २० ॥.
( ૧૭૭ )
अर्थ -देश, काल और पात्र के अनुसार ही दिया हुआ दान ‘सात्विक’ कहलाता है।
तथा-


दरिद्रान्भर कौन्तेय मा प्रयच्छेश्वरे धनम् ।
अर्थ- हे अर्जुन ! दरिद्रों का पालन करो, धनियों को धन मत दो । श्री मद्भगवद्‌गीता के इन वचनों के अनुसार इस प्रबल शीत काल में मकर संक्रान्ति पर दीनों को कम्बल आदि का दान परम धर्म है।

सर्व देशों में संक्रान्ति का महत्व

महाराष्ट्र प्रान्त में इस दिन तिलों का ‘तील गूल’ नामक हलवा बांटने की प्रथा है। और सौभाग्यवती स्त्रियां तथा कन्याएं अपनी सखी सहेलियों से मिलकर उनको हल्दी, रोली, तिल और गुड़ भेंट करती हैं। प्राचीन ग्रीक लोग भी वधू वर की सन्तान वृद्धि के निमित्त तिलों का पकवान बांटते थे। इससे ज्ञात होता है कि तिलों का प्रयोग प्राचीन काल से विशेष गुणकारक माना जाता रहा है। प्राचीन रोमन लोगों में भी मकर संक्रान्ति के दिन अंजीर, खजूर और शहद अपने इष्टमित्रों को भेंट देने की रीति थी। यह भी मकर संक्रान्ति पर्व की सार्व कालिनता और प्राचीनता का परिचायक है।

मकर संक्रान्ति का विकृतरूप लोहडी

पंजाब में मकर संक्रान्ति के एक दिन पहिले लोहड़ी का त्यौहार मनाने की परम्परा है। इस अवसर पर जगह जगह पर होली के समान अग्नि प्रज्वलित की जाती हैं, और उनमें तपे हुए गन्ने भूमि पर पटका कर आनन्द मनाया जाता है। उससे अगले दिन वहां पर मकर संक्रान्ति का उत्सव होता है, जिसको वहां ‘माघी बोलते हैं। यह दोनों दो दिन के लगा- तार दो उत्सव न होकर दिन दो-दिवसीय मकर संक्रान्ति महोत्सव के पर्व का ही विकृतरूप है।

सनातन परम्परा अनुसार मकर संक्रांति ऐसे मनाएं

मकर संक्रान्ति के दिन प्रातः सामान्य पर्व पद्धति में प्रदशित विधान अनुसार गृह के परिमार्जन, शोधन तथा लेपन आदि के पश्चात् स्नान कर नवीन शुद्ध स्वदेशीय वस्त्र-परिधान धारण करके सपरिवार सामान्य हवन करें। हवन सामग्री में तिल और शर्करा को परिमाण अधिक रखे। आहुतियों की मात्रा स्व सामर्थ्य अनुसार बढ़ा देवे । हेमन्त और शिशिर ऋतुओं के वर्णन परक ऋचाओं से विशेष आहुतियां देवे। सबकी मंगलकामना करते हुए अपनी सामर्थ्य अनुसार दान दीन एवं अभ्यागतों को दान अवश्य देवें।

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