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होली पर विशेष आलेख- रंगो से भरा सामाजिक समरसता का पर्व है होली

"हां रे होली आई रे, फागण री मस्ती छाई भाई रे, कै होली आई रे।"

आज फाल्गुन पूर्णिमा को है ! होली का त्यौहार 

रंगों का त्यौहार होली एक ऐसा उत्सव है जिसका नाम सुनते ही बाल आबाल स्त्री पुरुष सभी के मन में उमंग हिलोरें मारने लगती है,हर कोई एक दूसरे को रंग देना चाहता है

होली का पर्व का संबंध भक्त प्रहलाद के बचने व हिरण्यकश्यप की बहन होलिका के आग में जल जाने की घटना से है। पौराणिक काल से मनाया जाने वाला यह पर्व वैदिक काल में नवोन्नेष्टि यज्ञ के रुप में भी जाना जाने लगा। किसान खेतों में पका अनाज काट कर घरों में लाता है। जलती होली में गेहूं व जौ की बालियां व चने के बूटे भून कर प्रसाद के रुप में बांटे जाते हैं।अनाज के नए आस्वाद का आनंद लिया जाता है। यह ऋतु पर्व भी है ।यह समय शीत व ग्रीष्म ऋतु की संधि वेला है। होली के मौसम में प्रकृति भी अपनी छटा बिखेरती है।संस्कृत व हिंदी साहित्य में इसे मदनोत्सव के रुप में वर्णित किया गया है। भारवि,माघ , चंदबरदाई, विद्यापति, सूर, रहीम, रसखान, जायसी, मीरां, कबीर, बिहारी,केशव सभी ने इस पर अपनी कलम चलाई। लिंग पुराण में इसे फाल्गुनिका कहा गया तो भविष्य पुराण में कहा गया कि भूपति इस दिन अपनी प्रजा को भयमुक्त करने की घोषणा करें। प्राचीन चित्रों, भित्ति चित्रों व मंदिरों की दीवारों पर भी होली उत्सव के चित्र देखने को मिलते हैं जो इसकी प्राचीनता व सर्वकालिक मान्यता को दर्शाते हैं।


पूरे देश में अलग-अलग प्रकार से मनाई जाने वाली होली में बरसाने की लट्ठमार होली सबसे लोकप्रिय है। मथुरा वृन्दावन में होली का यह पर्व 15दिन तक चलता है। राजस्थान में होलिका दहन के दूसरे दिन धूलंडी होती है।लोग एक दूसरे पर रंग गुलाल अबीर डालकर होली की शुभकामनाएं देते हैं। नवजात शिशुओं का ढूंढोत्सव मनाया जाता है।गैरिए हरि हरि ने हरिया वेल,डावे कवले चंपा बेल… के साथ शिशुओं को ढूंढाते है,पूरा गांव सामाजिक समरसता का परिचय देता हुआ उमड़ पड़ता है,गैरियो की मनुहार की जाती है।गांव गांव में गैर नाची जाती है ,महिलाएं लूबण लेती है। घरों में पांच पकवान बनते हैं।


होली सामाजिक समरसता का पर्व है। होली मनोविनोद के सहारे मनोमालिन्य मिटाने का उत्सव है। यह आपस के मनमुटाव को भूलाकर एक दूसरे को गले लगाने का पर्व है।यह शुचिता, स्वच्छता,समता ममता एकता का पर्व है।इस पर्व में मेल-मिलाप का जो आत्मीय भाव अंतर्मन में उमडता है।वह सांप्रदायिक अतिवाद व जातीय जड़ता को भी ध्वस्त करता है। किसी भी जाति का व्यक्ति उच्च जाति के व्यक्ति के चेहरे पर गुलाल मल सकता है रंग डाल सकता है। आर्थिक रूप से विपन्न व्यक्ति भी धन कुबेर के भाल पर गुलाल का टीका लगा सकता है, दफ्तर का चपरासी भी उच्चाधिकारी के सिर पर रंग उंडेलने का अधिकार अनायास पा लेता है और अधिकारी भी अपने कार्यालय के सबसे छोटे कर्मचारी को गुलाल लगाते हुए आत्मीय भाव से गले लगा लेता है। वास्तव में रंगों का त्यौहार होली उन तमाम जाति व वर्गीय वर्जनाओं को तोड़ता है जो मानव समुदायों के बीच असमानता बढ़ाती है।

थे खेलों लाल गुलाल, होली नित आवे।
थे चालों प्रेम री चाल, होली नित आवे।
प्रेम ज्ञान री भर पिचकारी, होली खेलें देश पुजारी।
हो जावे देश निहाल, होली नित आवै।
इसे आनंद और उल्लास के साथ मनाएं –
आओ हिलमिल होली खेलों रे, भर प्रेम भाव का रंग,
भर प्रेम भाव का रंग, भर आत्मभाव का रंग,
भेदभाव का भूत भगाएं, ऊंच नीच को छोड़कर,
घृणा द्वेष के दुर्भावों से, ले अपना मुंह मोड़कर।
आओ हिलमिल होली खेलों रे।।

होली का त्यौहार हमारी सामाजिक सांस्कृतिक विरासत के साथ हमारे सामाजिक ताने-बाने को मजबूत बनाने का त्यौहार है।

विजय सिंह माली, प्रधानाचार्य – श्रीधनराज बदामिया राजकीय बालिका उच्च माध्यमिक विद्यालय सादड़ी जिला पाली राजस्थान मोबाइल 9829285914 vsmali1976@gmail.com

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2 Comments

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