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जगम्मनपुर, जालौन। होली आई रे.. आई रे …होली आई रे …. होली के प्रेम से सराबोर रंगों का यह हुड़दंगी त्योहार तथाकथित सभ्य होते समाज में औपचारिकता पूर्वक मनाए जाने के कारण दम तोड़ता नजर आ रहा है।
उल्लास एवं रंगों से सराबोर हुड़दंगी होली का मस्ती भरा त्यौहार तथाकथित सभ्य समाज के मिथ्या दिखावे के कारण एवं समाज में उदंड होते जा रहे लोगों के कारण अब दम तोड़ता हुआ नजर आ रहा है। फाल्गुन मास के प्रारंभ में बसंत पंचमी से ही गांव-गांव के मंदिरों पर ढोल नुमा ढोलक की थाप , कांसो और मजीरों की झंकार के बीच युवाओं व बुजुर्गों द्वारा मिलकर गाए जाने वाले फागुन गीत फाग की गूंजती समवेत ध्वनि होली के पर्व आगमन का मधुर संगीत माना जाता था। गांव के हर घर का एक-एक व्यक्ति होली गीत व फगुआ गाने या उसमें शामिल होने के लिए फगुवारों की टोली का हिस्सा बनता था।
सर्वप्रथम फगुबारों की यह टोली गांव के प्रत्येक देवस्थान पर जाकर देवताओं को अपने होली के गीत समर्पित कर बाद में गांव में उन लोगों के घर पर जाती थी जिनके यहां वर्ष भर में किसी का निधन हो गया हो उसके दरवाजे पर बैठकर अनराय फाग के गीत गाए जाते थे। होली में महज दो दिन बचे हैं, लेकिन अब होली की आहट देने वाले वहीं पुराने होली गीत के मदहोश कर देने वाली धुन और गीत सुनाई नहीं दे रहे। खास तौर से सांझ ढले जोगीरा साराररा तो अब सुनने को ही नहीं मिलता है। गांवों में चौपालों पर बैठकों में होली गीत के मस्तानों की टोली आ जुटती थी।
सांझ ढलते ही ढोलक-झाल पर उत्साही गवइयाें की महफिल सज जाती तो फिर कब आधी रात हो जाती, पता ही नहीं चलता। पहले तो धार्मिक फाग लिए गाने गाए जाते और जब महफिल चरम पर पहुंच जाती तो देवर-भाभी, पति-पत्नी, जीजा-साली और अन्य मजाकिया रिश्तों को गुदगुदाते, आह्लादित करते, झिझोड़ते गीतों तक पहुंच जाते। आज बिरज में होरी रे रसिया.., रघुवर जी वैर करो ना.., होरी खेलें रघुबीरा अवध में होरी खेलें रघुबीरा…। होरी खेल रहो नंदलाल मथुरा की कुंज गलिन में….कबीरा सररररर.. जैसे पारंपरिक होली गीत अब सुनने को नहीं मिलते और न ही लोगों के घरों पर एकत्र होकर होली गीत गाने वालों के दर्शन होते हैं।
यह परंपरा ही अब खत्म होने के कगार पर है। जिस रात्रि होली जलाई जाती थी उसे रात ढोल मजीरों के साथ फाग गाने वालों की टोली गांव के बाहर तक होली जलाने वाले स्थान पर मस्ती में झूम-झूम कर गीत गाते और फिर दूसरे दिन सुबह से ही होली खेले जाने के समय रंग गुलाल के बीच फगुवारो की यह टोली गांव में घूम-घूम कर होली के गीत गाती थे। लेकिन अब विलुप्त होती हमारी मस्ती की प्राचीन परंपरा पर भारी पड़ती डीजे की धुन पर आजकल के फूहड़ गीतों पर युवकों द्वारा अश्लील इशारों से युक्त नग्नता का नृत्य होली के पवित्र पर्व को अपवित्र कर रहा है हालांकि नए फूहड़ गीतों पर अभी भी पुराने होली गीत भारी पड़ते है।
होली का अर्थ – रंगों का त्यौहार
फाल्गुन मास में शिवरात्रि के बाद से ही होली मनाए जाने की परंपरा रही है। मित्र मंडली हंसी मजाक की मस्ती में आकर पहले एक दूसरे पर पानी फिर बाद में रंग फेंक कर एक दूसरी को विभिन्न प्रकार के रंगों से नहला देते थे इस प्रकार होली की शुरुआत हो जाती थी बाद में बचते बचाते दौड़ते पकड़ते हुड़दंगी अंदाज में एक दूसरे के चेहरों पर अनेक प्रकार के रंग लगाकर बुरा ना मानो होली है कहते हुए हंसी मजाक करते थे।
यदि कोई विरोधी भी मिल गया तो उसे गुलाल लगाकर यथोचित अभिवादन करके पुराने वैर भाव को समाप्त करते थे। गांव में लोग एक दूसरे के घर रंग गुलाल लगाने जाते थे और मीठी गुझिया खाकर नाश्ता करते थे। लेकिन अब मोबाइल युग में आधुनिकता की दौड़ लगा रहे एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते लोगों को यह सब रास नहीं आ रहा और होली से बचने के लिए दूर-दराज किसी पर्यटक या धार्मिक स्थल पर तीन चार दिवसीय एंजॉय करने के लिए जाना पसंद कर रहे हैं। इस कारण होली का रंग बिरंगा त्यौहार अब वेरंग होता जा रहा है।
सामूहिक उत्साह और उल्लास के प्रतीक इस त्योहार को तकनीकी और सूचना क्रांति की ऐसी नजर लगी कि मिट्टी की सौंधी महक वाले फाग और फगुआ कहां खो गए, पता नहीं ? होली का त्योहार प्रेम की वह रसधारा है, जिसके रास्ते रास रंग के जरिये पूरा समाज सरोबार हो जाता था। कानों में ढोल, ताशा, मजीरा और डफली की वह गूंज अब बहुत कम सुनने को मिलती है। हां, कहीं कहीं गांवों में आज भी कुछ लोग ऐसे हैं, जो पारंपरिक होली को आज भी राग-रंग, हंसी-ठिठोली, लय, आनंद और राग रंग के साथ रास रंग के नजरिये से देखते हैं।
जोधपुर में मंदिर के पुजारी रामबाबू औदीच्य जगम्मनपुर ने बताया कि धार्मिक मान्यताओं के अनुसार शिवरात्रि के दिन से ही होली की शुरुआत मानी जाती थी और इसी के साथ होली की मस्ती शुरू हो जाती थी।
पहले गांवों में फागुनी गीत गाए जाते थे जो होली के बाद तक चलते थे, लेकिन अब सिर्फ ठेठ ग्रामीण इलाकों में होली के दिन शाम में होली के पास जाकर फाग गाई जाती है। लेकिन अब मोबाइल में व्यस्त रहने वाली नई पीढ़ी के द्वारा फाग गायन ढोलक वादन ना सीखने के कारण वह परंपरा भी लुप्त होते नजर आ रही है।
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बुंदेलखंडी लोकगीत गायक जगतपाल सिंह राजावत “जगत” बताते हैं कि पहले होली के त्यौहार में गाए जाने वाली फागों में देवी देवताओं को समर्पित गीत एवं पवित्र हंसी मजाक की फाग भी शामिल होती थी लेकिन अब उनकी जगह फूहड़ और अश्लील गाने सुनने को मिल रहे। सवारी वाहनों, जीपों, टेम्पो और लग्जरी गाड़ियों में फूहड़ गानों वाले कैसेट की भरमार हो गई।अब डीजे के चलन के चलते सब खत्म हो गया।
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शहरी क्षेत्रों के साथ-साथ अब गांव में भी आधुनिकता हावी हो गई है। जिस रात को होली जलाई जाती है, उस रात्रि में डीजे लगाकर नाचते झूमते देखा जाता है। एक-दूसरे को गुलाल लगाकर होली की शुभकामनाएं देते है। वहीं ग्रामीण क्षेत्र में बगैर होली गीत गाकर औपचारिक रूप से एक दूसरे को होली की शुभकामनाएं भी देते है।
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जनपद के प्रसिद्ध शिक्षक नेता अशोक राठौर ने बताया कि रास रंग, उल्लास को तोड़कर जीवन में उमंग रस भरने वाले त्योहार होली के आनंद को अपना घर गांव छोड़कर वर्तमान में लोग तीर्थ स्थल में ढूंढ रहे हैं।
शिक्षक नेता अशोक राठौर
हर कोई एक दूसरे से यह पूछता नजर आता है होली पर कहां जा रहे हो मथुरा वृंदावन , खाटू श्याम, मेहंदीपुर बालाजी , सालासर बालाजी, अयोध्या, चित्रकूट ,काशी बनारस या दक्षिण के किसी तीर्थ स्थल पर ? ऐसा लगता है जैसे होली का उत्सव खो सा गया है।
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खो गई घरेलू मिठाई की महक – समाजसेवी डॉक्टर राजकुमार मिश्रा
समाजसेवी डॉक्टर राजकुमार मिश्रा ने कहा कि होली के पर्व पर प्रत्येक घरों में 10 दिन पहले से बेसन से निर्मित झार के मीठे लड्डू , विभिन्न प्रकार की मिठाइयां , मीठी खोया की गुझिया ,बेसन की नमकीन , मैदा मट्ठी ,चावल से बनाए जाने वाले ऐहसे और न जाने क्या-क्या मिठाइयां बनने का दौर शुरू होता था । घर की बड़ी बूढ़ी महिलाएं आदेशात्मक स्वर में बहुओं को प्यार से ललकारते हुए यह लाओ वह लाओ की आवाज लगाकर चूल्हे के पास बैठ अपनी पाक कला का उत्कृष्ट प्रदर्शन करती थी। होली पर रंग गुलाल लगाने के लिए घर पर आने वाले लोगों को जमकर यह पकवान खिलाए जाते थे। यह पकवान होली के पंद्रह दिन बाद तक खूब खाए जाते थे। लेकिन बाजार में बिकने वाली मिलावटी लेकिन चमकदार मिठाईयों ने घर में बनने वाली पवित्र मिठाइयों व व्यंजनों की महक को निगल लिया है।
साठ वर्षीय प्रमुख समाजसेवी विजय शंकर याज्ञिक कहते हैं कि हम अपने बचपन में दोस्तों की टोली बनाकर रंगों के साथ होली का हुड़दंग मचाते थे । जिस पर चाहे उसे पर रंग डालकर उसे रंग-बिरंगा कर देते थे।
विजय शंकर याज्ञिक
कोई बुरा नहीं मानता था उस समय गांव की गलियां ,रास्ते, घर की दीवारें भी विभिन्न प्रकार के रंगों से सराबोर हो जाती थी। लेकिन यह सब बीते जमाने की बातें हो गई हैं।
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स्नातक कक्षा में अध्यनरत 19 वर्षीय नीरज रावत ने होली खेलने व होली मनाने की प्राचीन परंपरा पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि यह सब सुनकर बहुत अच्छा लग रहा है क्या सच में ऐसा ही होता था ?
नीरज रावत
अब तो होली का पर्व नशेड़ियों के द्वारा वाद-विवाद, झगड़ा और अश्लीलता अभद्रता करने का त्योहार बन गया है। यदि किसी को रंग गुलाल लगा दो तो विवाद होने की संभावना रहती है काश हमारी पीढ़ी भी प्राचीन परंपरा से होली मना पाती।
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