जगम्मनपुर ,जालौन ।
बुंदेलखंड के तीर्थ में जनपद जालौन का प्रमुख तीर्थ पंचनद संगम व जगम्मनपुर का ऐतिहासिक किला प्रशासन के उचित प्रयासों की कमी, राजनीतिक जनप्रतिनिधियों के द्वारा कुछ बेहतर करने की दृढ़इच्छा शक्ति का अभाव एवं विद्वान लेखको की नजरंदाजी के कारण अपनी गरिमा के अनुरूप जिला के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में अपना स्थान नहीं बन पा रहे हैं।
जालौन जिला धार्मिक, ऐतिहासिक संघर्षों का साक्षी रहा है जिसे अनेक पुस्तको में लिपिवद्ध किया गया है लेकिन जालौन का इतिहास अथवा गौरव गाथा लिखने वाले विद्वान लेखको के द्वारा अन्वेषण की कमी अथवा जिला मुख्यालय से सर्वाधिक दूर होने के कारण लंबा सफर तय करने की जहमत से बचने के प्रयास के कारण सुदूर जंगल में पंचनद संगम स्थल व मुगल काल एवं अंंग्रेजी हुकूमत के लड़ने व उनके अत्याचारों का शिकार हुए जगम्मनपुर राज्य के सुदृढ़ सुंदर किला के इतिहास पर ज्यादा नही लिखा जा सका परिणाम स्वरुप बुंदेलखंड के तीर्थ जनपद के यह दौनो महत्वपूर्ण स्थल अपनी गरिमा के अनुरूप जिला के प्रमुख स्थलों में अपना स्थान नही बना पा रहे हैं।
बुंदेलखंड के तीर्थ स्थलों का वर्णन हो अथवा पर्यटक दर्शनीय स्थलों की चर्चा हो उसमें जिला जालौन के अन्य प्रमुख पर्यटक अथवा दर्शनीय स्थलों के साथ पंचनद संगम एवं जगम्मनपुर के किला पर बात ना हो तो यह न्यायोचित प्रतीत नहीं होता। पौराणिक काल से मुगल काल एवं ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम के लिए जिला जालौन जिला का सुखद, दुःखद व गौरवशाली इतिहास रहा है। बात चाहे वैदिक युग की हो या वर्तमान में संवैधानिक युग की…जिला जालौन के उत्तर पश्चिम अर्थात वायव्य दिशा में बुंदेलखंड का प्रमुख तीर्थ व विश्व में पांच नदियों का एकमात्र संगम स्थल पंचनद सदैव से ऋषि मुनियों की साधना व आम लोगों के लिए आस्था का केन्द्र रहा है ।
प्राकृतिक सौन्दर्यता से परिपूर्ण उस पावन बुंदेलखंड के तीर्थ पर हमारे धार्मिक पौराणिक घटनाओं के अन्वेषकों द्वारा गहराई से खोज ना करके एवं अपनी लेखन प्रस्तुति में पंचनद व जगम्मनपुर किला को जिले के गौरवशाली तीर्थ व पर्यटक स्थलों में शुमार ना करके अपनी लेखन विधा तथा तीर्थ व पर्यटन स्थल पंचनद संगम एवं ऐतिहासिक धरोहर जगम्मनपुर किला के प्रति न्याय किया जाना प्रतीत होता है। जबकि पंचनद नवसृजित बनावटी पर्यटन तीर्थ स्थल नहीं है यहां आकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे प्रकृति ने स्वयं अपने आनंद एवं साधना के लिए अपने सुघड़ हाथों से फुर्सत में इसे गढ़ा हो। पांच नदियों यमुना, चंबल, सिंध, कुंवारी , पहूज का यह संगम स्थल पंचनद धार्मिक पौराणिक घटनाओं के कारण तो महत्वपूर्ण है लेकिन यहां की प्राकृतिक सौंदर्यता आने-जाने वाले लोगों का बरबस मन मोह लेती है और पथिकों को भी कुछ समय तक यहां ठहरने के लिए वाध्य कर देती है।
यहां अटखेलिया करती पांच-पांच सदानीरा नदियों की कल-कल ध्वनि से अनौखा संगीत गूंजता है।पाचों नदियों के मिलने का दृश्य ऐसा प्रतीत होता है जैसे पांच बिछुड़ी बहिने अचानक से आकर एक दूसरे के गले में लिपट गई हो। नदियों में तैरती मछलियां, मस्ती में उछलती डॉल्फिन, नदी तट पर विश्राम करते मगरमच्छ व घड़ियाल, मछलियों का शिकार करने की टोह में पानी के ऊपर उड़ते विभिन्न प्रकार के पक्षी, आसपास के शांत वातावरण में पक्षियों का मनमोहक कलरव, अपनी मादा को रिझाने के प्रयास में पंख फैला कर नृत्य कर रहे मयूर, उसी समय नदी के तट पर अपने पशुओं को जल पिलाने के लिए आई ग्रामीण अल्हड बालिकाओं के सुमधुर गीतों की गूंजती ध्वनि, मंदिरों के बड़े बड़े घंटो की गूंजती घनघनाहट, संगम में स्नान करते एवं मंदिरों पर भ्रमण करते साधु संतों की हर हर महादेव शंभू सीताराम का उद्घोष , मंदिर परिसर में आयोजित धार्मिक कार्यक्रमों में उच्चरित मंत्र ध्वनि के साथ स्वाहा का नाद ऐसा प्रतीत होता है कि हम किसी दूसरे लोक में आ गए हो। मन में यह द्वंद चलने लगता है कि क्यों ना भीड़भाड़ व आपाधापी के जीवन से बचने के लिए कुछ समय तक यहां विश्राम कर लिया जाए।
बुंदेलखंड तीर्थ के जालौन जिला अंतर्गत जगम्मनपुर के समीप पांच नदियों का प्रमुख तीर्थ पंचनद संगम स्थल युगों युगों की घटनाओं एवं साधनारत संतो व उपद्रव करने वाले असंतो का साक्षी है। स्कंद पुराण के अनुसार भृगुवंशी गुरु जावालि (भार्गव महाअथर्वण) की पुत्री वाटिका का विवाह श्रीकृष्ण द्वैपायन (व्यास जी) से हुआ था। भार्गव महाअथर्वण ऋषि पंचनद के तट पर आश्रम बनाकर साधनारत थे उसी समय यमुना के किनारे पद यात्रा करते हुए श्रीकृष्ण द्वैपायन (व्यास जी) जब पंचनद के पास जंगल से गुजर रहे थे तभी भेड़ियों ने उन पर हमला कर मरणासन्न दिया।
घायल अवस्था में महाअथर्वण ऋषि की कन्या वाटिका श्री व्यास जी को अपने आश्रम पर लाई व पिता की दी गई औषधि एवं मंत्रों के प्रभाव से उन्हें स्वस्थ किया। कुछ काल बाद दोनों में विवाह संपन्न हुआ। श्रीमद् देवी भागवत पुराण के पंचम स्कंध के दूसरे अध्याय के अनुसार महिषासुर के पिता रम्भ तथा चाचा करम्भ ने पुत्र प्राप्ति के लिए पंचनद क्षेत्र में आकर तपस्या की करम्भ ने पंचनद के पवित्र जल में बैठकर अनेक वर्ष तक तप किया तो रम्भ ने दूध वाले वृक्ष के नीचे पंचाग्नि का सेवन किया। इंद्र ने मगरमच्छ (ग्राह) का रूप धारण कर करम्भ को तपस्या करते हुए मार डाला। विष्णु पुराण के अनुसार भगवान श्री कृष्ण के स्वर्गारोहण एवं द्वारका नगरी के समुद्र में डूब जाने के बाद पांडुपुत्र अर्जुन द्वारा द्वारका नगर वासियों को पंचनद क्षेत्र में बसाए जाने का उल्लेख है..
पार्थः पंचनदे देशे वहु धान्यधनान्विते। चकारवासं सर्वस्य जनस्य मुनि सन्तम्।।
महाभारत सभा पर्व अध्याय 32 व अध्याय 11, वन पर्व अध्याय 16, 42, 43, 83, 134 तथा उद्योग पर्व अध्याय 4 व 19 , कर्ण पर्व अध्याय 45 में पंचनद तीर्थ क्षेत्र के अनेक आख्यान हैं। महाभारत के युद्ध में पंचनद निवासियों ने दुर्योधन की सेना का पक्ष लिया था।
कृत्सनं पंचनद चैव तथैव वामारपर्वतम्।
उत्तर ज्योतिष चैव तथा दिव्यकटं पुरम्।।
महाभारत युद्ध के उपरांत पंचनद क्षेत्र को पांडव नकुल में अपनी दिग्विजय यात्रा के दौरान जीता था।
” ततः पंचनद गत्वा नियतो नियताशनः “
इसी प्रकार विभिन्न पुराणों में वशिष्ठ, विश्वामित्र, महर्षि भृगु, जमदग्नि के द्वारा पंचनद पर साधना करने की प्रमाण मिले हैं। 10 वीं शताब्दी में पंचनद पर नागा साधुओं में वन संप्रदाय के महात्माओं ने इसे अपना आश्रम बनाया उसी समय से अभी तक यहां वन संप्रदाय के साधु निवास कर रहे है। सन 1603 ईस्वी में वन संप्रदाय के 19वें सिद्ध संत मुकुंदवन (श्री बाबासाहब) महाराज एवं उनके शिष्य मंजूवन जब पंचनद पर आश्रम पर साधनारत थे उसी समय रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी उनसे भेंट करने के लिए पंचनद पर पधारे थे । उस काल खंड के दो महान संत श्री मुकुंदवन (बाबासाहब) महाराज व गुसाई जी महाराज के मिलन के आश्चर्यचकित कर देने वाले अनेक किस्से इस क्षेत्र में प्रचलित है।
पंचनद पर श्री बाबासाहब मंदिर
वैसे तो समूचा पंचनद क्षेत्र तपोवन है लेकिन यहां पर 16 वीं शताब्दी में साधनारत रहे सिद्ध संत श्री मुकुंदवन (बाबा साहब) महाराज के प्रति लोगों में असीम श्रद्धा है। मान्यता है कि श्री बाबा साहब महाराज आज भी पंचनद आश्रम में साधनारत है इस कारण उनके मंदिर में श्री बाबा साहब की मूर्ति के स्थान पर चरण ही पूजे जाते हैं। प्रतिवर्ष कार्तिक की पूर्णिमा पर यहां स्नान मेला का विराट आयोजन होता है।
इस अवसर पर यहां एक लाख से अधिक श्रद्धालु स्नान करके श्री बाबा साहब के मंदिर में वीरा (पान) बताशा पुष्प चढ़ाकर अपनी श्रद्धा अर्पित करते हैं। मान्यता है कि फसल की मड़ाई (खलिहान उठने) के बाद आसपास के जितने गांव से सिद्ध संत श्री बाबासाहब मंदिर पर साधु संतों अभ्यागतों के भोजन व मंदिर प्रबंधन के लिए अनाज दान किया जाता है उतने गांवों में अभी तक फसल के समय ओलावृष्टि नहीं हुई है। पंचनद स्थित बाबासाहब मंदिर पर बर्ष भर धार्मिक कार्यक्रम आयोजित होते रहते है एवं अभ्यागतों के लिए भोजन विश्राम आदि का निशुल्क प्रबंध किया जाता है।
पांच नदियों का संगम पंचनद
पंचनद का शाब्दिक अभिप्राय, पंच अर्थात पांच, नद अर्थ का नदी अर्थात पांच नदियां…
पंचनद पर पांच सदानीरा पवित्र नदियों का संगम है ।
यमुना नदी
इस स्थल से बहने वाली सूर्य तनया एवं यमराज की बहन व भगवान श्री कृष्ण की पटरानी यमुना नदी का उद्गम हिमालय के हिमाच्छादित श्रृंग बंदरपुच्छ जिसकी ऊंचाई समुद्र तल से 6200 मीटर है के लगभग 12 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में स्थित कालिंद पर्वत के यमुनोत्री से होता है । अपने उद्गम स्थल से हरियाणा उत्तर प्रदेश होती हुई लगभग 1376 किलोमीटर की यात्रा पूरी कर प्रयागराज में गंगा नदी में मिलती है ।
चंबल नदी
चंबल नदी श्रापित मानी जाती है। यह दक्षिण पठार के मध्य प्रदेश में मऊ के निकट समुद्र तल से 216 मीटर ऊंची जनापाव नामक पहाड़ी से निकलकर मध्य प्रदेश राजस्थान उत्तर प्रदेश की भूमि की प्यास बुझाते हुए लगभग 966 किलोमीटर की यात्रा पूरी कर ग्राम भरेह के पास यमुना नदी में मिल जाती है।
ऐसी मान्यता है कि शकुनी द्वारा जुंआ का आयोजन मुरैना में चंबल तट पर हुआ था। वही द्रोपदी का वस्त्र हरण हुआ , द्रोपती ने श्राप दिया कि जो चंबल नदी का जल पिएगा वह अथवा उसका पुण्य नष्ट हो जाएगा।
पहूज नदी
पहूज नदी का पौराणिक नाम पुष्पावती है, यह झांसी के पास वैदौरा नामक गांव में पहाड़ियों के बीच से निकलती है । यह लगभग 200 किलोमीटर की यात्रा पूरी करते हुए पंचनद पर यमुना नदी में मिल जाती है।
सिंध नदी
सिंध नदी मध्य प्रदेश के विदिशा जिले में नैनवास कला स्थित तालाब से निकलती है। वहीं कुछ लोग इसका उद्गम गुना जिले की सिरोंज के पास पहाड़ी से मानते हैं । यह नदी 470 किलोमीटर की यात्रा पूरी कर पंचनद पर पहूज नदी के साथ यमुना नदी में मिल जाती है। सिंध अत्यधिक पवित्र नदी मानी जाती है ।भवभूति के मालती माधव के नौवें अंक में तथा पद्मपुराण के द्वितीय अध्याय में इस नदी का बिस्तृत वर्णन है।
क्वारी नदी
कुंवारी नदी का उद्गम शिवपुरी के वैराड के निकट पहाड़ी से माना जाता है । यह मध्य प्रदेश के भिंड जिला होती हुई पंचनद के निकट पहूज नदी में मिल जाती है।
पंचनद संगम तीर्थ पर लिखने की बात हो तो एक ग्रंथ लिखा जा सकता है । लेकिन यहां लिखने की एक सीमा है जिसकी मर्यादा ध्यान में रखते हुए पंचनद संगम पर सूक्ष्म विवरण के साथ इस चर्चा का समापन किया जाना श्रेष्ठतम होगा।
बुंदेलखंड के तीर्थ- कनार व जगम्मनपुर किला का गौरवशाली इतिहास
- सेंगर क्षत्रिय राजाओं के समृद्धशाली राज्य व शौर्य का प्रतीक जगम्मनपुर का किला आज भी अपनी वैभव गाथाओं को अपने आगोस में समेंटे शान से खडा सम्पूर्ण जनपद को गौरवान्वित कर रहा है।
दसवीं शताब्दी में पंचनद के समीप यमुना तट पर कनार नामक समृद्धशाली राज्य था जिसकी सीमा इटावा से बांदा तक फैली थी। ऐतिहासिक घटनाक्रम के अनुसार मेवाड के राणा सांगा की मदद मे कनार से सेना भेजे जाने से क्षुब्द मुगल आक्रमणकारी बार ने 1528 में कनार राज्य पर आक्रमण कर दिया और तोप के प्रहारो से कनार के विशाल दुर्ग को ध्वस्त कर दिया व मंदिरो को तोडकर मूर्तियों को खंडित कर हिंदुओं की धार्मिक भावनओं को आहत कर उन्हे मानसिक रूप से अपमानित किया।
कनार दुर्ग के खंडहरो (कर्ण खेरा) पर यह टूटी हुई मूर्तियों के ढेर आज भी बाबर की बर्बरता की याद दिलाती है। कनार का किला टूट जाने के बाद तत्कालीन राजा तिवर लालपुर के किला मे जाकर रहे वही से अपने राजकाज का संचालन किया । कुछ काल बाद कनारधनी महाराजा ईश्वरराज के पुत्र जगम्मनशाह ने लगभग 50 वर्ष उपरांत यमुना नदी से 3 किलोमीटर दक्षिण में वीरान स्थान पर जंगल को साफ करवा कर सन् 1580 के आसपास जगम्मनपुर नाम से नगर बसाया और अपने लिए नए किला का निर्माण करवाना प्रारंभ किया।
कुछ समय उपरांत महाराजा जगम्मनशाह के स्वर्गारोहण उपरांत उनके उत्तराधिकारी महाराजा उदोतशाह ने किला के निर्माण कार्य को जारी रखा उसी समय सन् 1603 के लगभग रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी पंचनद संगम तीर्थ स्थल पर पधारे। महाराजा उदोतशाह के आग्रह पर गोस्वामी जी जगम्मनपुर आए और निर्माणाधीन किला की देहरी रोपण किया जो आज भी किला के प्राचीन मुख्य प्रवेश द्वार पर लगी है जो इस कथन को प्रमाणित करता है व गुसाईं जी ने राजा उदोतशाह को भगवान शालिग्राम जी की मूर्ति , दाहिनावर्ती शंख एवं एक मुखी रुद्राक्ष प्रदान किया जो आज भी जगम्मनपुर किला के मंदिर में सुरक्षित है।
जगम्मनपुर का किला लगभग 7 एकड़ में निर्मित है इसमें छोटे बड़े लगभग 250 कक्ष बने हैं इनमें राज दरबार हॉल, न्यायालय, भगवान लक्ष्मी नारायण जी का मंदिर, अभिलेखागार , रानी महल सहित छोटे बडे पांच चौक (आंगन) है। किला के मुख्य प्रवेश द्वार के अंदर मैदान में अष्टधातु की विशाल तोप व शिकार हुए अनेक वन्य व जल जंतुओं के अवशेष सुरक्षित हैं। विशेष पच्चीकारी एवं चित्रकारी युक्त वर्गाकार इस विशाल किला को राजमहल कहना न्यायोचित है क्योंकि महाराजा रूपशाह ने बनारस से नक्शा बनवा कर इस किला को महल का स्वरूप प्रदान किया था।
अंग्रेजो द्वारा बार बार कहे जाने के बाबजूद जगम्मनपुर के राजाओं किसी क्रांतिकारी को पकडवाने में मदद नही और ना कभी अंग्रजों को सैन्य सहायता दी परिणाम स्वरूप अंग्रेजों ने जगम्मनपुर राज्य पर सीमा से अधिक कर बसूलना शुरू करके उत्पीडन किया, उनसे लगभग 400 गांव छीन लिए। क्रांतिकारियो की मदद करने के आरोप में ऊमरी के किला को तोपों से तुड़वा दिया।अनेक अत्याचारो के बाद भी जगम्मनपुर के राजा फिरंगियों के आगे नही झुके परिणाम स्वरूप जगम्मनपुर राज्य राजाओं की तुलना में आर्थिक रूप से कमजोर हुआ था।
सन 1952 में जगम्मनपुर राज्य का भारत सरकार में विलय हो गया इसके बाद राजाओं को होने वाली आय समाप्त हो गई। हालाकी जगम्मनपुर राज्य के राजा रहे वीरेंद्रशाह जूदेव आजादी से लेकर सन 1971 तक मृत्यु पर्यंत विधायक रहे तदोपरांत उनके जेष्ठ पुत्र राजेंद्रशाह एवं तृतीय पुत्र जितेंद्रशाह विधायक बने लेकिन विशाल किला के रखरखाव हेतु पर्याप्त आमदनी का स्रोत न होने से यह किला निरंतर जीर्ण शीर्ण होता गया। तीन मंजिला किला नुमा महल में राज वंशज सुकृतशाह आज भी निवास करते है।
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