लुई ब्रेल ने ही ब्रेल लिपि के क्रांतिकारी आविष्कार द्वारा दृष्टिहीनों को पढ़ने लिखने में समर्थ बनाकर सभी प्रकार की उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने के योग्य बनाकर उन्हें अपने संपूर्ण जीवन में छाये अज्ञान के गहन अंधकार से बाहर निकलने का मार्ग दिखाया।
नेत्रहीनो के मसीहा थे लुई ब्रेल
नेत्रहीनों के मसीहा लुई ब्रेल फ्रांस के शिक्षाविद् तथा अन्वेषक थे जिन्होंने अंधों के लिए लिखने तथा पढ़ने की प्रणाली’ब्रेल लिपि’ विकसित कर अंधों को ज्ञान चक्षु प्रदान किए। लुई ब्रेल का जन्म 4 जनवरी 1809 को फ्रांस के कुप्रे में हुआ। इनके पिता का नाम साइमन रेलें ब्रेल व माता का नाम मोनिक ब्रेल था। इनके पिता शाही घोड़ों के लिए काठी जीन बनाने का कार्य करते थे।एक दिन पिता की नकल कर चमड़ा काटने का प्रयास कर रहे नन्हे ब्रेल की बायीं आंख में चाकू लग गया।खून की धारा बह निकली। पिता ने मरहम पट्टी की।
8 वर्ष के होते होते ब्रेल दृष्टिहीन हो गए
रंग बिरंगे संसार के स्थान पर उस बालक के लिए सब कुछ गहन अंधकार में डूब गया। 7 वर्ष की आयु में गिरजाघर के पादरी ने उसे प्राकृतिक वस्तुओ का तथा बाइबिल का परिचय करवाया। 8 वर्ष की आयु में उसने गांव के विद्यालय में प्रवेश लिया और 2 वर्ष तक सामान्य बालकों की तरह शिक्षा ग्रहण की पर वह साधारण बालक नहीं था उसके मन में संसार से लडने की प्रबल इच्छा थी।
वह फ्रांस के मशहूर पादरी वेलेंटाइन की शरण में गया। उनके सहयोग से 1819 में दस वर्षीय लुई ब्रेल को मशहूर अंध विद्यालय ‘रायल इंस्टीट्यूट फार ब्लाइंडस’ में दाखिला मिल गया। यहां का वातावरण स्वास्थ्य वर्धक नहीं था पर दूसरा कोई विकल्प नहीं था।
टॉप मोस्ट आर्टिकल पढ़े भारत रत्न महामना मदनमोहन मालवीय | Bharat Ratna Mahamana Madan Mohan Malviya
इस विद्यालय में उसने संगीत, इतिहास, भूगोल, गणित, फ्रेंच, लेटिन विषयों का बड़े मनोयोग से अध्ययन किया। विद्यालय की वर्कशॉप में कपड़ा बुनना और स्लीपर बनाना सीखा, पियानो और आर्गन बजाना सीखा। लुई के परिश्रम व कुशाग्र बुद्धि ने उसे विद्यालय के निदेशक का मन भी जीत लिया। 1821 में उसे पता चला कि शाही सेना के सेवा निवृत्त कैप्टन चार्ल्स बार्बर ने सेना के लिए ऐसी कूटलिपि का विकास किया है जिसकी सहायता से वे टटोलकर अंधेरे में भी संदेशों को पढ़ सकते हैं।
लुई ब्रेल के कार्य
बालक ने पादरी से चार्ल्स बार्बर से मिलने की इच्छा व्यक्त की। पादरी ने मुलाकात करवाई। प्रखर बुद्धि के लुई ब्रेल ने कूट लिपि में आवश्यक संशोधन के सुझाव भी चार्ल्स को दिए जिससे वे प्रभावित हुए। 8 वर्ष के अथक परिश्रम के बाद वे छः बिंदुओं पर आधारित ऐसी लिपि बनाने में सफल रहे। 9 वर्ष तक पेरिस के अंधविद्यालय में पढ़ाई के बाद 8 अगस्त 1828 को लुई ब्रेल उसी विद्यालय में सहायक शिक्षक के रुप में अध्यापन कार्य कराने लगे। दया, संवेदनशीलता, स्वाध्याय तथा सहयोग भाव ने उन्हें विद्यालय का लोकप्रिय शिक्षक बना दिया। अध्यापन के साथ संगीत साधना करने लगे।
रविवार को गिरजाघर में पियानो वादन के माध्यम से ईश्वर आराधना कर आध्यात्मिक आनंद प्राप्त करते। लुई ब्रेल की लिपि का लोगों ने मखौल उड़ाया पर लुई ब्रेल ने हिम्मत नहीं हारी वे दृष्टि बाधितों में इसको प्रचारित करते रहे। 1824-25 में पहली बार ब्रेल लिपि की सार्वजनिक प्रस्तुति दी गई। डाक्टर पिनिए ने 3 खंडो में फ्रांस का संक्षिप्त इतिहास ब्रेल लिपि में मुद्रित करवाया।1829 में पहली बार ब्रेल लिपि के बारे में पुस्तिका प्रकाशित।
जब लुई ब्रेल को क्षय रोग ने घेर लिया
सरकार ने भी ब्रेल लिपि को प्रचारित करने का प्रयास किया। 26 वर्ष की आयु में ही ब्रेल को क्षय रोग ने घेर लिया। अस्वास्थ्यकर वातावरण व परिश्रम की पराकाष्ठा से रोग दिनों दिन बढ़ता गया। उन्हें विद्यालय से बार बार छुट्टी लेने की नौबत आ गई। विद्यालय प्रबंधन ने यह जानते हुए कि वे पढ़ाने में असमर्थ हैं फिर भी उनके विद्यालय के प्रति समर्पण व निष्ठा को देखते हुए नौकरी में बनाएं रखा। दिसंबर 1851 में उनकी स्थिति ज्यादा खराब हो गई। उन्होंने वकील को बुला कर वसीयत बनाई जिसमें दृष्टि हीनों तथा उनके कल्याण के लिए कार्य करने वाली संस्थाओं को आर्थिक सहयोग करने की बात कही गई।
लुई ब्रेल की मृत्यु के बाद
6 जनवरी 1852 को अंतिम क घडी निकट जानकर पादरियों से धार्मिक संस्कार करवाया व धर्मोपदेश सुने।सायं 7.30बजे पेरिस में लुई ब्रेल महा प्रयाण कर गए। 10 जनवरी 1852 को उनके गांव कुप्रे में उनका अंतिम संस्कार किया गया। इनकी मृत्यु के बाद मई 1853 में शिक्षकों व विद्यार्थियों ने सहयोग कर अंध विद्यालय पेरिस के प्रवेश द्वार पर उनकी मूर्ति स्थापित की।1882 में उनके गांव में उनकी स्मृति में स्मारक बनाया। उनकी मृत्यु के बाद शिक्षा शास्त्रियों ने इस लिपि की गंभीरता समझी और दुराग्रह छोड़ते हुए मान्यता देने हेतु विचार किया। 1868 में रायल इंस्टीट्यूट आफ ब्लाइंडस यूथ ने ब्रेल लिपि को प्रामाणिक रुप से मान्यता दी। मृत्यु के 100 वर्ष पश्चात 20 जून 1952 को इनके गांव कुप्रे में इनके पार्थिव शरीर के अवशेष सम्मान सहित निकाल कर पूर्वजो द्वारा किए गए व्यवहार के लिए क्षमा याचना की और राष्ट्रीय धुन के साथ पेंथियान में पुनः ससम्मान दफनाया।इस अवसर पर हेलेन केलर भी उपस्थित थीं। 1992 में क्षुद्र ग्रह 9969 का नामकरण इनके नाम पर किया गया। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका ने भी सभी समय के 100 प्रभावशाली अन्वेषकों में इन्हें भी सूचीबद्ध किया। 2009 में लुई ब्रेल के जन्म के 200 वर्ष पूरे होने के अवसर पर भारत सरकार ने लुई ब्रेल पर डाक टिकट व सिक्का जारी किया। 2019 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 4 जनवरी को विश्व ब्रेल दिवस मनाने का निर्णय लिया।
सौम्य व्यक्तित्व तथा दयालु स्वभाव के धनी लुई ब्रेल ने ब्रेल लिपि द्वारा दृष्टिहीनों के जीवन में जो प्रकाश पैदा किया उसके लिए वे सदैव याद किए जाएंगे। लुई ब्रेल के कारण ही नेत्रहीन व्यक्ति आज शिक्षित होकर समाज की मुख्य धारा से जुड़ पाए हैं। ब्रेललिपि ने दृष्टि हीनों को ज्ञान के प्रकाश के साथ साथ सामाजिक प्रतिष्ठा, आत्मविश्वास तथा निजी जीवन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रदान की जिससे उन्हें समाज में सम्मानित स्थान प्राप्त हुआ।ऐसे महान व्यक्तित्व को शत शत नमन।
Some really interesting points you have written.Assisted me a lot, just what I was searching for : D.
I genuinely enjoy looking through on this internet site, it contains excellent content. “We find comfort among those who agree with us–growth among those who don’t.” by Frank A. Clark.