वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 पहली बार 29 मार्च, 2023 को लोकसभा में पेश किया गया था। इस विधेयक में वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 में व्यापक बदलाव के लिए कई संशोधन पेश किए गए थे। जल्द ही कानून का रूप लेने जा रहे इस विधेयक की यात्रा अपने आप में एक केस स्टडी है कि कैसे व प्रक्रिया को पूरी तरह से नष्ट किया जाता है।
विधेयक को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन संबंधी स्थायी समिति को भेजा जाना चाहिए था, जिसका मैं अध्यक्ष हूं। मैंने इसपर गंभीर आपत्ति जताई थी, और एक बार नहीं बल्कि दो बार, उसे रिकॉर्ड पर भी रखा था। लेकिन विधेयक को समिति को भेजने के बजाए संसद की एक संयुक्त समिति (JCP) गठित की गई, जिसके अध्यक्ष सत्ताधारी दल के सांसद थे।
खैर, जो भी हो, JCP ने 20 जुलाई, 2023 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। यह बिल्कुल अजीब बात थी और शायद ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है कि समिति ने जो रिपोर्ट दी, उसमें सरकार द्वारा पेश किए गए विधेयक में किसी भी तरह के बदलाव का कोई सुझाव नहीं था। जबकि, छह सांसदों ने विस्तृत रूप से असहमति व्यक्त करते हुए टीप्पणी की थी। मैं भी पूरी तरह से उनके साथ हूं। लोकसभा ने 27 जुलाई, 2023 को इस विधेयक को पास किया था और आज बिना किसी सार्थक बहस के इसे राज्यसभा में भी शोर-शराबे के बीच पास कर दिया गया। पिछले कुछ महीनों में इस विधेयक की बड़े पैमाने पर आलोचना हुई है और यह बहुत चिंता का कारण बना हुआ है। मैं विधेयक के उन संशोधनों पर अपनी मूल आपत्तियों को संक्षेप में प्रस्तुत करना चाहता हूं जो जल्द ही कानून बनने वाला है:
1. सबसे पहले तो कानून का नाम ही बदला जा रहा है। पहली बार संसद द्वारा पारित किसी कानून का संक्षिप्त शीर्षक बिना किसी आधिकारिक अंग्रेज़ी समानार्थी के पूरी तरह हिंदी में होगा। यह गैर-हिन्दी भाषी राज्यों के साथ अन्याय है। भाषा में बदलाव के अलावा, कानून के शीर्षक में संशोधन किया जा रहा है, जिसे अंग्रेज़ी में ट्रांसलेट करने पर फॉरेस्ट (Conservation and Augmentation ) अधिनियम पढ़ा जाएगा। यह इस कल्पना पर आधारित है कि वृक्षारोपण प्राकृतिक वनों के नुक़सान की भरपाई कर सकता है। ऐसी धारणा पूरी तरह से ग़लत है। दोनों पारिस्थितिक रूप से बहुत अलग हैं। प्राकृतिक वनों को पुनर्जीवित किया जा सकता है लेकिन उन्हें संवर्धित नहीं किया जा सकता है, जैसा कि संशोधन करने वालों की मानसिकता से प्रतीत होता है।
2. “वन जैसे क्षेत्र” यानी, भूमि के वे हिस्से जिनमें वनों जैसी विशेषताएं तो हैं, लेकिन कानून के तहत अधिसूचित नहीं हैं या किसी भी सरकारी रिकॉर्ड में ‘वन’ के रूप में दर्ज नहीं हैं को संशोधन में अलग कर दिया गया है या कहें कि छोड़ दिया गया है। इसमें पारंपरिक रूप से संरक्षित भूमि एवं ऐसे वन क्षेत्र शामिल हैं जो रिकार्ड में नहीं है और जिन्हें “मानित वन” के रूप में पहचाना जाना चाहिए। साथ ही इसमें ऐसे क्षेत्र भी हैं, जिन्हें ‘वन’ के रूप में अधिसूचित किया जाना है, लेकिन जिनकी अधिसूचना भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 4 (या अन्य राज्यों के ऐसे कानून) के तहत अभी नहीं हुई है।
इसके अलावा 1996 से पहले राज्य द्वारा डायवर्ट की गई वन भूमि को भी प्रस्तावित संशोधन में छोड़ दिया गया है। ऐसा होने से वन भूमि’ की श्रेणी कम होगी और ऐसे सभी वनों को ख़तरा होगा, जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय के 1996 के ऐतिहासिक T.N गोदावर्मन फैसले के अनुमोदन के आदेश के तहत लाया गया था। वनों की इन सभी श्रेणियों का सटीक अनुमान लगाना मुश्किल है। लेकिन ऐसा लगता है कि देश के 20% 25% वनों का कानूनी संरक्षण इससे समाप्त हो सकता है और यदि ऐसा होता है तो इनका पारिस्थितिक संरक्षण भी समाप्त हो जाएगा। इन “वन जैसे क्षेत्रों को अब वानिकी के अलावे दूसरे उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, बदला जा सकता है, दुरुपयोग किया जा सकता है और बेचा जा सकता है।
3. पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने बार-बार वन अधिकार अधिनियम, 2006 की अनदेखी की है, जो आदिवासियों और पारंपरिक रूप से वन में रह रहे लोगों के हितों की रक्षा के लिए बनाया गया था। परियोजनाओं के लिए वन मंज़ूरी के मामले में अब तो उनकी आजीविका एवं अधिकार भी कोई मायने नहीं रखते। यही कारण है कि जनजातीय मामलों के मंत्रालय और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग, जो कि एक संवैधानिक निकाय है, ने भी वन संरक्षण नियम, 2022 पर गंभीर आपत्ति जताई थी, जो वन भूमि के डायवर्शन के लिए अत्यंत आवश्यक होने पर ग्राम सभा द्वारा अनुमोदन की आवश्यकता को समाप्त करता है। नए संशोधन पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा वन अधिकार अधिनियम, 2006 का अनुपालन न करने की इस नीति को जारी रखते हैं। इन संशोधनों से न केवल व्यक्तिगत बल्कि सामुदायिक वन अधिकार (CFRs) भी गंभीर ख़तरे में पड़ जाएंगे।
4. राष्ट्रीय सुरक्षा नाम पर जो कि निस्संदेह आवश्यक है, जंगलों को साफ़ करने और हमारी सीमाओं के पास जैव विविधता के हिसाब से महत्वपूर्ण और भौगोलिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों को बदलने के लिए तरह से क्लीन चिट प्रदान की जा रही है। इन संशोधनों में एक संशोधन ऐसा है जो “अंतरराष्ट्रीय सीमाओं या लाइन ऑफ कंट्रोल या लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (LAC) के 100 किलोमीटर के क्षेत्र में “राष्ट्रीय महत्व की रणनीतिक रैखिक परियोजनाओं एवं राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित निर्माण के लिए किसी भी तरह की मंजूरी प्राप्त करने से छूट देता है। यह न केवल हिमालयी और उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों की पारिस्थितिकी को प्रभावित करने वाला है, बल्कि समाज के निचले छोर पर रहने वाले समुदायों की आजीविका को भी प्रभावित करता है। सिर्फ़ यह उम्मीद ही की जा सकती है कि ऐसी परियोजनाओं की प्लानिंग और कार्यान्वयन पारिस्थितिक ढंग से संतुलित तरीक़े से किया जाएगा।
इस प्रकार संशोधनों का जो निष्कर्ष है और संसद में इन्हें जिस तरह से लाया और पास करवाया गया, दोनों ही मोदी सरकार की मानसिकता को दर्शाते हैं। विधेयक यह भी दिखाता है कि पर्यावरण, वनों एवं आदिवासियों और जंगल में रहने वाले अन्य समुदायों के अधिकारों को लेकर इस सरकार की वैश्विक स्तर पर बातों और घरेलू स्तर पर किए जाने वाले कार्यों में कितना अंतर है।