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नवसस्येष्टि दिपावली एवं महर्षि दयानन्द निर्वाण दिवस


घेवरचन्द आर्य पाली


नवसस्येष्टि यज्ञों एवं सुगंधित दीपमालाओं द्वारा सर्वत्र आमोद-प्रमोद की वर्षा करते हुए दीपावली पर्व का उत्सव अनादि काल से कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। सनातन भारतीय परंपरा मे चार प्रमुख पर्व हैं।


दीपावली कब है : कार्तिक मास की अमावस्या (३१ – १०  – २०२४)


जिसमें एक नव वर्ष प्रतिपदा, दूसरा बसन्तीय नव सस्येष्टि (होली), तीसरा ॠषि तर्पण या श्रावणी (रक्षाबन्धन), और चोथा दीपावली (शारदीय नवसस्येष्टि)। ये चारों पर्व भारतीय तिथि एवं पंचाग अनुसार ऋतु परिवर्तन के अवसर पर समस्त देश में उत्साह से मनाये जाते हैं। लाखों वर्षों के काल खण्ड में अनेक ऐतिहासिक घटनाए इन पर्वों के साथ जुड़ने के कारण उत्सव मनाने की विधि में समय एवं परिस्थिति अनुसार कुछ परिवर्तन तथा इन पर्वों के साथ नये नाम जुड़ गये है।

नवसस्येष्टि दिपावली एवं महर्षि दयानन्द निर्वाण दिवस

दिपावली को भगवान राम अयोध्या नहीं आये थे।

वर्तमान में एक कल्पित कथा दिपावली के सम्बन्ध में यह जुड़ी है कि दिपावली के दिन भगवान राम रावण को मारकर अयोध्या लोटे थे। इसलिए उनके स्वागत के लिए दिपक जलाए गये उसी दिन से दिपावली मनाई जाने लगी है । जो हकिकत में सही नहीं है। भगवान राम के समकालीन महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण के अनुसार भगवान राम ने रावण का वध फाल्गुन मास में किया था।

उनको वनवास चेत्र माह में मिला था। तो उनके 14 वर्ष चेत्र माह में ही पूरे होते हैं न की कार्तिक मास की अमावस्या को। इसलिए यह बात सत्य प्रतीत नहीं होती की भगवान राम दिपावली को अयोध्या आये थे ।जबकि शारदीय नवसस्येष्टि यज्ञ (दिपावली) का पर्व भगवान राम के वनवास गमन से पूर्व भी मनाये जाने के प्रमाण शास्त्रों में मोजूद है ।

वर्षा ऋतु का अन्त और सर्दी का आगमन

सनातन काल में घर कच्चे होते थे जिनका वर्षा ऋतु में स्वरूप बिगड़ जाता था । शारदीय नवसस्येष्टि अर्थात् दीपावली के आस-पास वर्षा ऋतु समाप्त हो जाती है। तो गृहणीयां घर की लिपाई पुताई करके सजावट करती है। किसानों के घर नई फसल मूंग, दाल बाजरा, ज्वार, तील आदि गाड़ीयां भरकर अन्न और ऋतुफल घर आता है।

तो किसान खुश होकर परमात्मा का धन्यवाद ज्ञापन करने के लिए घर पर नवसस्येष्टि यज्ञ कर नवान्न की आहुतियां देते और घर पर मिठाई बनाकर खुशी मनाते साथ ही परिवार एवं बच्चों के लिए नये कपड़े खरीदते है। सनातन काल में धन केवल अन्न या गौ को ही माना जाता था। आजकल की तरह रूपयों का लेन-देन नहीं होता था। सब कुछ अन्न या गौ के बदले मिल जाता था। इसलिए विवाह में पुत्री को धन की अपेक्षा कन्यादान के रूप में गौदान करने का शास्त्रों में विधान है जिसका गांवों में अब भी पालन होता है। अन्न और गौ ही लक्ष्मी का स्वरूप थे।

वेद मंत्रों में धन की कामना

इस सम्बंध में वेद भगवान कहते हैं। वयं स्याम पतयो रयीणाम्।
यजुर्वेद हे! सर्व शक्तिमान ईश्वर हमें वह सामर्थ्य प्रदान करो। जिससे हम धन एवं ऐश्वर्य के स्वामी बने। और कभी भी धन एवं ऐश्वर्य के दास न बने। हम हवन पूजन करते समय भगवान से प्रार्थना करते हैं कि रमन्तां पुण्य, लक्ष्मीर्या, हमारे घरों में पुण्य लक्ष्मी का वास हो, पाप की नहीं। पुण्य लक्ष्मी वहीं है जो ईमानदारी और पुरूषार्थ अर्जित की जावे। और पाप लक्ष्मी वह है जो बेईमानी शोषण और जुआ आदि से बिना परिश्रम अर्जित की जावे।

भूरिदा भूरि देहि नो मा दभ्रं भूर्या भर।। ऋग्वेद ४/३२/२०।।

हे ! बहुदानी परमात्मा ! हमें खूब धन दे, हमें ऐश्वर्य शाली बना। मनुष्य जब धन एवं ऐश्वर्य का स्वामी होता है तो वह मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के समान राज्य का भी परित्याग कर देता है। जब धन ऐश्वर्य का दास बनता है तो रावण और दुर्योधन की तरह अपना और परिवार का विनाश कर लेता है। यानि धन और ऐश्वर्य केवल जीवन चलाने के साधन मात्र है। वेद की ये सूक्तियां इस बात को दर्शाती है कि मनुष्य के जीवन में धन की जरूरत होती है। सम्पत्ति प्राप्त करके मनुष्य स्वावलंबी और आजाद बनता है इसके लिए उसे ईमानदारी और पुरूषार्थ से धन कमाना चहिए।

दिपावली को जुआ खेलना धर्म शास्त्रों में वर्जित

महात्मा भगवान शिव जी महाराज, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम, और योगीराज भगवान श्री कृष्ण जी तीनों हमारे महापुरुष और आदर्श है इनके द्वारा प्रयोग जुआ खेलने का कोई वर्णन हमारे धर्म शास्त्रों नहीं मिलता है । फिर दिपावली के दिन धूत क्रीड़ा जुआ खेलना कैसे प्रचलित हुआ ? इसकी कोई भी जानकारी नहीं है। इसलिए हमे जुआ लाटरी या बेइमानी अर्थात शोषण से धन संग्रह नहीं करना चाहिये।

नवसस्येष्टि दिपावली एवं महर्षि दयानन्द निर्वाण दिवस

वेदो में गणपति का स्वरूप

वेद में गणपति परमात्मा को कहा गया है क्यों कि वह सभी देवगणों का अधिपति हैं, तो उसकी प्रथम पूजा के लिए ही यज्ञ हवन किया जाता है। उस गणपति के गुण कर्म स्वभाव अनुसार अनेक नाम हैं जिसमें मुख्य ओ३म् है। हवन के माध्यम से उसमे नवीन अन्न और फल की आहुतियां प्रदान कर शेष अन्न कृषक अपने और परिवार के लिए काम में लेता है। दिपावली को रात्रि में, तील या सरसों के किटाणु रोधक तैल से तथा कुछ दीपक गोघृत से जलाये जाते हैं। दीपों की लम्बी-लम्बी पंक्तिबद्धता के कारण इसका लोक प्रसिद्ध नाम दीपावली हो गया।

गोवर्धन पर्वत बनाम गौ वर्धन

दूसरे दिन प्रातःकाल गृहणियां गोबर का गोवर्धन पर्वत बना कर पूजा करती है। यह घटना श्रीकृष्ण के गोवर्धन पर्वत से सम्बंधित है। जिसका आश्य यह है कि कृषक जन अपने परिवार और राष्ट्र के लिए गायों का वर्धन करें। इसलिए दुसरे दिन गौ वंश का श्रृंगार कर उनकी पूजा की जाती है। सनातन वैदिक काल में इस दिन सभी गौ पालक अपने अपने पशुधन के साथ एक जगह एकत्रित होते थे। जहां बड़ी बड़ी प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती थी। जिसके पास 100 गौ वंश है उसे नंद और जिसके पास हजार गौ वंश है उसको महानंद की उपाधि से अलंकृत कर सम्मानित किया जाता था।

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30 अक्टूबर दयानन्द निर्वाण दिवस

आज से 141 वर्ष पूर्व 30 अक्टूबर सन् 1883 के दिन इस महत्वपूर्ण पर्व को महर्षि दयानन्द के निर्वाण की असाधारण घटना ने और भी गोरवान्वित किया है । संवत् 1940 कार्तिक मास की अमावस्या ठीक दिपावली के दिन सायं गोधुलिक वेला का समय केसा निर्मम था। जिसने विश्व के महापुरुष आर्य जनों के प्राणभूत महर्षि दयानन्द को सर्वदा के लिए हमसे छीन लिया था। महापुरुषों का देहावसान साधारण मनुष्यों की भांति शोकोत्पादक न होकर प्रेरणादायक होता है।

आजकल प्रायः देखा जाता है कि दिपावली के दिन आर्य जन समाज में प्रातः यज्ञ हवन भजन करके महर्षि दयानन्द के उपकारों का संस्मरण और दिखावे के लिए श्रद्धांजलि करके इतिश्री कर लेते हैं। और रात में घर जाकर परिवार के साथ दिपावली पूजन का धूम धड़ाका करते हैं, मिठाई आदि खाते हैं। यह सब सच्चे आर्यों के लिए त्याज्य होना चाहिए। क्यों कि जिस दिन वे ऐसा करते हैं उस दिन तो महर्षि दयानन्द जी महाराज की मृतक देह का अन्तिम संस्कार भी नहीं हुआ था। इसलिए आर्यों के लिए खुशी मनाना उचित प्रतीत नहीं होता।

आर्य जन दिपावली को बधाई प्रेषित न करें

आर्य समाज में किसी भी आर्य समाजी द्वारा दिपावली की बधाई का आदान-प्रदान नहीं करना चाहिए । इस दिन हमारे आदर्श महापुरुष महर्षि दयानन्द जी महाराज का निर्वाण हुआ था। इसलिए शोक दिवस या प्रेरणा दिवस मनाया जाना चाहिए। विशेष कर महर्षि दयानन्द जी महाराज के जीवन चरित्र में से निर्वाण के समय की घटना का विशेष रूप से स्वाध्याय करके आत्मचिंतन करना चाहिए। जो महापुरुष अपने अन्तिम समय में भी यह संदेश दे गया कि- वेद की ज्योति जलती रहे। उसके महाप्रयाण दिवस पर आर्यों को प्रतिज्ञा वद्ध होना चाहिए कि हे! ऋषिवर हम आपकी आज्ञा शिरोधार्य कर आपके बताए वेदोक्त मार्ग पर संलग्न रहेंगे।

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सामाजिक एकता का राष्ट्रीय पर्व

ओ३म् असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय।बृहदारण्यकोपनिषद् से लिया गया है. यह श्लोक इसका अर्थ है किः हे प्रभो ! मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो। मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो। अंधकार यानी कि बुराई और बुरी आदतों को त्यागकर प्रकाश यानी कि सत्य के पथ पर उन्मुख होना ही वास्तविक साधना और आध्यात्म है। यह श्लोक और दिपावली भी दुनिया के सभी मनुष्यों को यही संदेश देती है।

जो कार्तिक मास की अंधेरी रात को आती है लेकिन समस्त जगत में उत्साह और खुशी का प्रकाश करती है। दुसरे दिन सब एक दुसरे के घर जाकर बधाई देकर खुशी जाहिर करते हैं छोटे बड़े ऊच निच का कोई भेदभाव नहीं रहता है। हर उम्र और आय के व्यक्ति के चेहरे पर खुशी स्पष्ट झलकती है।

होली (नव सस्येष्टि यज्ञ) दिपावली (शारदीय नव सस्येष्टि यज्ञ) संसार के सभी मनुष्यों का पर्व है इसको किसी सम्प्रदाय या मज़हब से जोड़कर देखना मेरे हिसाब से अनुचित है। वेद में यज्ञ करना सभी मनुष्यों का कर्तव्य कर्म बताया गया है। क्यों कि यज्ञ से पर्यावरण रक्षण और सभी जीवों का उपकार होता है । दिपावली पर जो नवीन अन्न की फसल घर पर आती है वह किसी एक मजहब की नहीं होती वह सभी मनुष्यों की होती है। यही अनादि सत्य सनातन धर्म की महानता है।


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Khushal Luniya

Khushal Luniya is a young kid who has learned HTML, CSS in Computer Programming and is now learning JavaScript, Python. He is also a Graphic Designer. He is playing his role by being appointed as a Desk Editor in Luniya Times News Media Website.

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