मारियो मोंटेसरी का शैक्षिक जीवन दर्शन
मारियो मांटेसरी ने पारम्परिक कक्षाओं का बहिष्कार किया तथा बाल हितैषी कक्षाओं पर बल दिया। उसने अपना संपूर्ण जीवन शिशुओं की शिक्षा में लगा दिया। उन्होंने मोंटेसरी पद्धति नाम से पुस्तक भी लिखी जो काफी लोकप्रिय हुई।मोंटेसरी पद्धति धीरे धीरे लोकप्रिय होती गई। यूरोप के कई देशों ने इस पद्धति को अपना लिया।
विजय सिंह माली (प्रधानाचार्य) मोबाइल 9829285914 vsmali1976@gmail.com श्रीधनराज बदामिया राजकीय बालिका उच्च माध्यमिक विद्यालय,सादड़ी
मारियो मोंटेसरी का जन्म इटली के एंकोना प्रांत के चियारावले में 31अगस्त 1870 को हुआ। इसके माता पिता का नाम रेनिल्डे स्टोपनी वह एलसेंद्रो मांटेसरी था। इसके सैन्य अधिकारी पिता इसे शिक्षिका बनाना चाहते थे। 12 वर्ष की आयु में मांटेसरी परिवार रोम शहर में स्थानांतरित हो गया। मारिया ने गणित में रुचि दिखाते हुए इंजीनियरिंग तकनीकी स्कूल में दाखिला लिया।
22साल की उम्र में इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ कर मेडिकल में पढ़ाई करने का निश्चय किया।1894में मारियो ने रोम विश्वविद्यालय से एम डी की उपाधि प्राप्त की। सामाजिक न्याय से प्रेरित मारियो ने मनोरोग क्लिनिको व स्कूलों में काउंसलिंग करना शुरू किया। वहां उसे अनुभव हुआ कि दिव्यांग बच्चों के शिक्षा में पिछड़ने का कारण ज्ञानेन्द्रियो की हीनता है। उन्हें दवा नहीं विशिष्ट शिक्षा की आवश्यकता है।
मारियो ने रोम विश्वविद्यालय के मनोचिकित्सा क्लिनिकों का अवलोकन कर विद्यालय में एक ऐसे वातावरण का निर्माण का विचार रखा जो बालकों के लिए सुखद यानी बाल हितैषी हो।वह समकालीन डाक्टर इटार्ड व एनवर्ड सेगुअन से भी प्रभावित हुई जो मंद बुद्धि बालकों की शिक्षा पर कार्य कर रहे थे।
वह इटली में दिव्यांग लोगों की बौद्धिक क्षमता को बढ़ाने वाले संस्थान की निदेशक बनी व इस दिशा में कार्य करने लगी। उसने पिछड़े हुए बालकों की शिक्षा के लिए विशिष्ट पद्धति को जन्म दिया जिसे मांटेसरी पद्धति कहा गया।
जनवरी 1907 में उन्होंने इटली में पहला कासा दे बाहिनी (हाऊस आफ चिल्ड्रन)खोला। उसने इस बात पर बल दिया कि इनका पर्यावरण बाल हितैषी हो, फर्नीचर व शैक्षणिक सामग्री बच्चों की उम्र के अनुसार हो। मांटेसरी ने शिक्षण और सीखने के पारंपरिक रुपों में क्रांति ला दी। उन्होंने बच्चों के सम्मान के लिए प्रतिबद्धता रखी। उन्होंने स्वयं स्वीकार किया -“मैंने शिक्षा की एक विधि का आविष्कार नहीं किया, मैंने बस कुछ छोटे बच्चों को जीने का मौका दिया।”
कई देशों में भ्रमण के बाद मारियो नीदरलैंड में बस गई। भारत में भी गिजुभाई बधेका,सरला देवी साराभाई, ताराबाई मोड़क ने मांटेसरी पद्धति पर कार्य शुरू किया।1937में अरुंडेल्स नीदरलैंड में मारियो से मिले व भारत आने का न्यौता दिया।1939में वह भारत आई और थियोसोफिकल सोसायटी के तत्वावधान में मोंटेसरी पद्धति पर व्याख्यान दिए।
मद्रास (चैन्नई ) में मोंटेसरी संघ की शाखा खोली तथा इंडियन ट्रेनिंग कोचर्स इंस्टीट्यूट अडियार की निदेशक का पद सुशोभित किया। अहमदाबाद में 1000लोगो को मांटेसरी पद्धति में दीक्षित किया। 6मई 1952को नीदरलैंड में मारियो मोंटेसरी का देहावसान हो गया।
मारियो चली गई लेकिन मोंटेसरी पद्धति के रूप में शिक्षा जगत को अवदान दे गई।मोंटेसरी का शैक्षिक दर्शन इस प्रकार है-
1.स्वतंत्रता-
मोंटेसरी बालकों की पूर्ण स्वतंत्रता की पक्षधर थी। उसकी मान्यता थी कि बालक के व्यक्तित्व का विकास करने के लिए उसे अधिक नियंत्रण में नहीं रखना चाहिए। बालक को अपनी रुचि के अनुसार विकास करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। मोंटेसरी ने बालक की मूल प्रवृतियों एवं रुचियों को ही शिक्षा का आधार माना है। उसके अनुसार शिक्षा देने का उद्देश्य बालक में स्वावलंबन, आत्म सम्मान, आत्मविश्वास आदि गुणों को उत्पन्न करना है।
2.वैयक्तिकता का विकास-
मोंटेसरी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य वैयक्तिकता का विकास करना है। मोंटेसरी ने बालक के प्राकृतिक विकास पर बल दिया। उसके अनुसार बालक जो कुछ आगे बनेगा।वह उसमें जन्म के समय बीज रुप में निहित है अतः शिक्षक का कार्य जन्म के समय उपस्थित शक्तियों के विकास का वातावरण प्रदान करना है।
3.आत्मशिक्षा-
मोंटेसरी का कथन है -सच्ची शिक्षा वह है जिसमें बालक अपनी आवश्यकता अनुसार स्वयं सीखता है। अपने आप ज्ञान की खोज करने से ज्ञान का सच्चा स्वरूप सामने आता है।बालक अपने आप सीखता है और अपनी उन्नति देखता है तो बहुत प्रसन्न होता है।आत्मशिक्षा के लिए मोंटेसरी ने कुछ शैक्षिक यंत्रों का निर्माण भी किया।इन प्रबोधन यंत्रों के साथ बालक बड़ी रुचि के साथ खेलता है व आनंदमय हो जाता है।
4.ज्ञानेंद्रिय प्रशिक्षण द्वारा शिक्षा –
मोंटेसरी के अनुसार ज्ञानेंद्रिय की शिक्षा का अत्यधिक महत्व है।मोंटेसरी के अनुसार 3-7वर्ष की अवस्था के बीच बालक की ज्ञानेंद्रियां विशेष रूप से क्रियाशील रहती है अतः इस अवस्था में ज्ञानेन्द्रियो के विकास पर अवश्य ध्यान देना चाहिए।
5.कर्मेंद्रियों की शिक्षा-
ज्ञानेंद्रियों की भांति कर्मेंद्रियां भी मानव जीवन के लिए आवश्यक है।शरीर के अंग सबल बने इसलिए यह आवश्यक है कि अंगों के सही संचालन की शिक्षा दी जाय। अतः प्रारंभ से बालक की मांसपेशियों को साध लिया जाय। यदि बालक मांसपेशियों पर नियंत्रण की क्षमता प्राप्त कर लेता है तो उसमें आत्मनिर्भरता आ जाती है।
6.खेल द्वारा शिक्षा-
मांटेसरी के अनुसार शिक्षा बालक की प्रकृति के अनुसार होनी चाहिए।बालक की रुचि खेल में स्वभाव से होती है।बालक को सबसे प्रिय खेल होते हैं। अतः प्रारंभ में खेल द्वारा शिक्षा देना ही ठीक है।बालक को शैक्षिक यंत्र दे दिए जाए जिनसे वह खेलने लगेगा।
7.तार्किक अनुशासन-
यदि बालकों को स्वतंत्रता दी जाय और उन्हें आत्मशिक्षा के लिए प्रेरित किया जाए तो छात्रों में अनुशासनहीनता का प्रश्न नहीं उठेगा। अनुशासन बाहर से नहीं लाया जा सकता वह तो अंतप्रेरणा की वस्तु है अतः छात्रों में उत्तरदायित्व की भावना भर देनी चाहिए जिससे वे अनुशासन के प्रति सजग होकर स्व अनुशासन स्थापित कर सके।
8.उपयुक्त वातावरण-
अभीष्ट विकास के लिए शिक्षाप्रद वातावरण जरुरी है।मोंटेसरी ने बालगृहो को वास्तविक विद्यालय बताया क्योंकि वहां पर बालक रचनात्मक कार्यों में जुटे रहते है और रचनात्मक कार्यों में आनंद लेते हुए बहुत सी बातें सीखते हैं।
सचमुच मोंटेसरी पद्धति 114 वर्ष पुरानी पद्धति होते हुए भी प्रासंगिक हैं।मोंटेसरी ने ठीक ही कहा था-विकास गतिविधि के चलते होता है न कि बौद्धिक समझ से। इसीलिए छोटे बच्चों खासकर तीन से छह साल की उम्र तक के बच्चों की शिक्षा महत्वपूर्ण होती है क्योंकि चरित्र व समाज निर्माण की यही प्रारंभिक अवस्था है।
साइंस पत्रिका के 28सितंबर 2006के अंक में छपी रिपोर्ट मोंटेसरी स्कूल की प्रासंगिकता सिद्ध करती है –
“पारंपरिक स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की तुलना में मोंटेसरी शिक्षा से बेहतर सामाजिक व शैक्षिक योयताओ वाले बच्चे तैयार होते हैं। पढ़ने और गणित संबंधी निपुणताओ के मामले एवं प्रबंधकीय प्रकृति के कार्यों में भी मोंटेसरी बच्चे बेहतर पाए गए।”
विजय सिंह माली
प्रधानाचार्य
श्री धनराज बदामिया राजकीय बालिका उच्च माध्यमिक विद्यालय सादड़ी(पाली)306702
मोबाइल 9829285914
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